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________________ * परमात्मपद-प्राप्ति का मूलाधार : आत्म-स्वभाव में स्थिरता * १६१ * घर से छूटकर संसाररूपी परभावगृह में मोह-माया के नाना बंधनों में जकड़ा रहता है, उसे परम उपकारी जीवन्मुक्त वीतराग अर्हन्त परमात्मा तथा सद्गुरुदेव स्वभावरूपी घर में लौटने एवं स्वभावगृह में स्थिरता से परभाव-बन्धन से मुक्ति एवं परमात्मभाव-प्राप्ति की बात सुनाते हैं, प्रेरणा देते हैं, फिर भी वह संसाररूपी कारागृह में रहने में तथा जन्म-मरणादि के भयंकर कष्ट सहने में भी मोह-ममत्ववश आनन्द मानता है, क्या वह उस मन्दमति बैल से भी गया-बीता नहीं है? जो आत्म-हितैषी सुयोग्य सुपात्र होता है, उसे अपने आत्म-स्वभाव की बात सुनते ही अन्तर में उल्लास प्रगट होता है। उसकी अन्तरात्मा का परिणमन तीव्र गति से स्वभाव के अभिमुख होता है। वस्तुतः जितना काल संसार में परिभ्रमण करने में लगा, उतना काल मोक्ष का-परमात्म-प्राप्ति का उपाय करने में नहीं लगता, क्योंकि विकारभाव (विभाव) की अपेक्षा स्वभाव का वीर्य (आत्म-सामर्थ्य) अनन्त है। इस कारण आत्मार्थी स्वभावनिष्ठ आत्मार्थी साधक स्वभावरत होकर अल्पकाल में ही मोक्ष को-परमात्मभाव को सिद्ध कर लेता है। परन्तु उसका प्रमुख श्रेय अन्तर में यथार्थ उल्लास प्रकट होने को है। आशय यह है कि आत्मा के शुद्ध स्वभाव में स्थिरता की बात एक बार भी जिज्ञासा, रुचि, श्रद्धा और प्रीति के साथ सुने तो उसकी सर्वकर्ममुक्ति अथवा परमात्मपद-प्राप्ति की साधना शीघ्र ही सफल हुए बिना नहीं रहती। अनादिकालीन विभाव क्षणभर में दूर हो सकता है : कैसे और किसकी तरह ? __ एक प्रश्न यह भी है कि अनादिकालीन विभाव जब तक दूर न हो, तब तक स्वभाव में निष्ठा कैसे हो सकेगी? माना कि अनादिकाल से जीव विभाव में पड़ा है, उसका चैतन्य तंत्र विभाव की उत्पत्ति में निमित्त बनता है। परन्तु आत्मा को अपने असली स्वभाव-स्वरूप का ज्ञान-भान हो जाए, वह जाग्रत हो जाए, तो भ्रम टूट जाता है। भ्रम टूटने के साथ ही विभाव को भगते जरा भी देर नहीं लगती। जो विभाव अनादिकाल से भ्रमवश आत्मा में जड़ जमाए बैठा था, उस भ्रम के मिटते ही वह विभाव भी मिट जाता है। श्रीमद् राजचन्द्र ने इसे एक दृष्टान्त द्वारा समझाया है- . “कोटिवर्षनुं स्वप्न पण, जागृत थतां समाय। तेम विभाव अनादिनो, ज्ञान थतां दूर थाय॥" स्वप्न प्रायः अर्ध-सुषुप्त (तन्द्रा) अवस्था में आया करता है, क्योंकि अर्ध-सुषुप्त अवस्था में अवचेतन मन जाग्रत रहता है। उस समय अन्तर में पड़े हुए १. 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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