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________________ * विदेह-मुक्त सिद्ध-परमात्मा : स्वरूप, प्राप्ति, उपाय * १२९ * समदर्शी आचार्य हरिभद्र जी भी इसी सिद्धान्त का समर्थन करते हैं "चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य कोई भी हो, यदि समभाव (वीतरागभाव) से उसकी आत्मा भावित है तो निःसन्देह वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो सकता है।'' वास्तव में मोक्ष, मुक्ति या सिद्धि के लिए वीतरागता, सार्वभौम समतायोग या आत्म-भावों में रमणता, आत्म-गुणों में निष्ठा आवश्यक है, उसके लिए सम्प्रदाय, वेश, पंथ, जाति, देश, रंग-रूप आदि की विभिन्नता गौण है। वीतरागता से मुक्ति-प्राप्ति के लिए साधुधर्म या साधुवेश का स्वीकार भी एक सुदृढ़ विकल्प है। अन्य कई विकल्प भी हैं; किन्तु सबके पीछे कषाय-मुक्ति, वीतरागता, समभाव-भावितात्मा आदि तत्त्व अनिवार्य हैं। जैनधर्म का स्पष्ट आघोष है कि मनुष्य किसी भी देश, वेश, धर्म-सम्प्रदाय, जाति और रंग-रूप का हो, वह वीतरागता, कषायमुक्ति, समभाव-भाविता आदि आध्यात्मिक गुणों का पूर्ण विकास करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो सकता है। मोक्ष-प्राप्ति के विषय में जैनधर्म की उदारता : पन्द्रह प्रकार से सिद्ध हो सकता है 'नन्दीसूत्र' और 'प्रज्ञापनासूत्र'२ आदि में जैनधर्म के इस उदारता-प्रधान तथा गुण-पूजा के सिद्धान्त के अनुसार तीर्थसिद्धा, अतीर्थसिद्धा आदि पन्द्रह प्रकारों में से किसी भी प्रकार से सिद्ध-मुक्त होने का पाठ दिया गया है, उनका क्रम और . भावार्थ इस प्रकार है- (१) तीर्थसिद्ध-जिससे संसार-समुद्र तिरा जा सके, वह तीर्थ (धर्मसंघ) कहलाता है। अर्थात् जीवाजीवादि पदार्थों की प्ररूपणा करने वाले तीर्थंकरों के वचन और प्रवचन को धारण करने वाला चतुर्विध (साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप) श्रमणसंघ तीर्थ कहलाता है। अथवा प्रथम गणधर भी तीर्थ कहलाते हैं। इस प्रकार के धर्मतीर्थ से या धर्मतीर्थ की मौजूदगी में जो सिद्ध-मुक्त होते हैं, वे तीर्थसिद्ध कहलाते हैं। १. सेयंबरो व आसंबरो वा, बुद्धो व तहव अन्नो वा। समभावभावियप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो॥ २. (१) तित्थसिद्धा, (२) अतित्थसिद्धा, (३) तित्थयरसिद्धा, (४) अतित्थयरसिद्धा, (५) सयंबुद्धसिद्धा, (६) पत्तेयबुद्धसिद्धा, (७) बुद्धबोहियसिद्धा, (८) इथिलिंगसिद्धा, (९) पुरिसलिंगसिद्धा, (१०) नपुंसकलिंगसिद्धा, (११) सलिंगसिद्धा, (१२) अन्यलिंगसिद्धा, (१३) गिहिलिंगसिद्धा, (१४) एगसिद्धा, (१५) अणेगसिद्धा। -नन्दीसूत्र : केवलज्ञान प्रकरण; प्रज्ञापनासूत्र : प्रथम पद में सिद्ध प्रज्ञापना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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