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________________ * विदेह-मुक्त सिद्ध-परमात्मा : स्वरूप, प्राप्ति, उपाय * ११३ * आवागमन के नष्ट) हो जाने से अनन्त सिद्ध हैं, वे परस्पर अवगाढ़ = एक-दूसरे में समाये हुए हैं। वे सब लोकान्त का-लोक के अग्र भाग का स्पर्श किये हुए हैं। ___ एक-एक सिद्ध समस्त आत्म-प्रदेशों द्वारा, अनन्त सिद्धों का पूर्ण रूप से संस्पर्श किये हुए हैं-एक-दूसरे में पूरी तरह समाये हुए हैं। उनसे भी असंख्यातगुण सिद्ध ऐसे हैं, देशों और प्रदेशों से एक-दूसरे में अवगाढ़ हैं।' जैसे चक्षुरिन्द्रिय-जन्य ज्ञान से नाना प्रकार के आकार वाले पदार्थ ज्ञानात्मा में एकरूप से निवास करते हैं, इसी प्रकार अजर, अमर, अक्षय, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त इत्यादि विभिन्न नामों से युक्त सिद्ध भगवान भी एकरूप से विराजमान हैं। सिद्ध-मुक्त आत्माओं को अनन्त ज्ञान : कैसे होता है, कैसे नहीं ? प्रश्न है-मुक्तात्मा के इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि नहीं होते हैं, तब वे अतीन्द्रिय केवलज्ञान से पदार्थों को कैसे जानते हैं ? इसका समाधान यह है कि केवल (अनन्त) ज्ञान दर्पण की तरह है। जैसे दर्पण के सामने पदार्थों के होने से ही उसमें पदार्थ अपने आप झलकने लगते हैं, उसी प्रकार मुक्तात्मा के केवलज्ञान में समस्त पदार्थ प्रतिबिम्बित होते रहते हैं। अतः मुक्तात्मा केवलज्ञानी को पदार्थों के जानने के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। ‘प्रवचनसार' में कहा गया है-"अपनी आत्मा के जानने से सर्वज्ञ तीन लोक को जानता है, क्योंकि आत्मा के स्वभावरूप केवलज्ञान में यह लोक प्रतिबिम्बित हो रहा है।" 'आचारांग' में भी कहा है"जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ।"-जो एक पदार्थ को सर्वथा जानता-देखता है, वह सर्वपदार्थों को जानता-देखता है। एक प्रश्न यह भी है केवलज्ञानरूपी दर्पण में छोटे-बड़े सभी पदार्थ एक साथ कैसे प्रतिबिम्बित हो सकते हैं ? समाधान यह है कि आत्मा ज्ञान-प्रमाण है और ज्ञान ज्ञेय के बराबर है। ज्ञेय समस्त लोक और अलोक है। अतः अनन्त ज्ञान सर्वव्यापक (सर्वगत) है। ‘भगवती आराधना' में कहा है-सर्वज्ञ का अनन्त ज्ञान १. एक मांहि अनेक राजे, अनेक मांहि एककम्। २. (क) जत्थ ए एगो सिद्धो, तत्थ अणंता, भवक्खय विप्पमुक्का। अण्णोण-समोगाढ़ा, पुट्ठा सव्वे य लोगते॥९॥ फुसइ अणंते सिद्धे, सव्वपएसेहिं णियमसो सिद्धा। तेवि असंखेज्जगुणा देसपएसेहिं जे पुट्ठा ॥१०॥ -औपपातिकसूत्र, सिद्धाधिकार, गा. ९-१० (ख) प्रज्ञापना, पद २ (ग) 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. ९३-९४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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