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________________ * ९४* कर्मविज्ञान : भाग ९ * वास्तविक तीर्थंकर अष्टादश दोषों से रहित होने पर ही जो भी हो, जब तक मनुष्य इन १८ दोषों से सर्वथा मुक्त नहीं हो जाता, तब तक वह आध्यात्मिक शुद्धि और सिद्धि के पूर्ण विकास के पद पर नहीं पहुँच सकता। ज्यों ही वह इन १८ दोषों से मुक्त होता है, त्यों ही आत्म-शुद्धि और वीतरागता के उच्च शिखर पर पहुँच जाता है । केवलज्ञान - केवलदर्शन के द्वारा समस्त विश्व का, जड़-चेतन का ज्ञाता - द्रष्टा बन जाता है। तीर्थंकर परमात्मा पूर्वोक्त १८ दोषों से रहित होते हैं। उनके जीवन में इनमें से एक भी दोष नहीं. रहता। वस्तुतः चार घनघातिकर्मों का नाश होने पर आर्हन्त्य अवस्था प्रकट होती है। घातिकर्मों से सर्वथा मुक्त होने पर अर्हन्त तीर्थंकर भगवंतों में किसी भी प्रकार का विकार या दोष नहीं रह सकता। ये चार आत्म- गुणघातक कर्म ही विकारों या दोषों को उत्पन्न करते हैं। इनके नष्ट हो जाने पर अर्हन्तों की आत्मा विभाव - परिणति का सर्वथा त्याग करके स्वभाव - परिणति में आ जाती है। ऐसी स्थिति में वीतराग अर्हन्त परमात्मा निर्दोष, निर्विकार एवं निष्कलंक हो जाते हैं। : अतएव वास्तविक तीर्थंकर या अर्हन्त वही है, जो उपर्युक्त समस्त दोषों से रहित अतीत हो । पूर्वोक्त प्रकार से तीर्थंकरों (या अर्हन्तों) को १८ दोषों से रहित बतलाया है, वे तो उपलक्षण मात्र हैं। इन दोषों का अभाव तो अरिहन्त भगवन्तों की बाह्य पहचान है। इन मुख्य दोषों के अभाव से उनमें अन्य समस्त दोषों का अभाव समझना चाहिए ।' तीर्थंकरों या अर्हन्तों को चार घातिकर्मों के क्षय से जो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र, अनन्त तप, अनन्त आत्मिक शक्ति आदि आत्मिक-गुण प्राप्त होते हैं, उनका वे न तो दुरुपयोग करते हैं और न ही प्रदर्शन, आडम्बर, दिखावा, प्रसिद्धि करते हैं, न ही वे प्रशंसा या प्रतिष्ठा-पूजा की चाह करते हैं । उनको प्राप्त आध्यात्मिक शक्तियाँ कभी विकारभाव को प्राप्त नहीं होतीं । यही अर्हन्त भगवन्तों में निहित आत्म- गुणों की पहचान है। पिछले पृष्ठ का शेष (ग) अन्तराया दान - लाभ-वीर्य-भोगोपभोगतः । हास्योरत्यरती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च ॥१॥ कामो मिथ्यात्वमज्ञानं निद्राचाविरतिस्तथा । रागोद्वेषश्च नो दोषास्तेषामष्टादशाऽप्यमी ॥२॥ १. अनन्तविज्ञानमतीत दोषमबाध्यसिद्धान्तममर्त्य पूज्यम् । श्रीवर्द्धमानं जिनमाप्तमुख्यं स्वयम्भुवं स्तोतुमहंय तिष्ये ॥ २. 'चिन्तन की मनोभूमि' से भाव ग्रहण, पृ. ३० Jain Education International = For Personal & Private Use Only - स्याद्वाद मंजरी, श्लो. १ www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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