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________________ * विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति हेतु * ९३* -भगवन् ! देवताओं का आगमन, आकाश-विहार, छत्र-चामरादि वैभव ( विभूतियाँ) तो ऐन्द्रजालिक जादूगरों (मंत्र-तंत्र सिद्धि प्राप्त व्यक्तियों) में भी देखे जा सकते हैं। इन कारणों से आप हमारे लिये महान् (महनीय = पूजनीय ) नहीं हो सकते। (आप इसलिए महान् हैं कि आपकी वाणी ने वस्तु के यथार्थ स्वरूप को (सत्य को ) अनावृत किया था और आपमें ज्ञानादि आध्यात्मिक गुण पूर्ण रूप से विकसित थे। आचार्य हेमचन्द्र ने भी 'अन्य-योग-व्यवच्छेद- द्वात्रिंशिका' में इसी यथार्थवाद की धारा का अवलम्बन लेकर कहा - " भगवन् ! आपके चरण-कमल में इन्द्र लोटते थे, इस बात का अन्य दार्शनिक भी खण्डन कर सकते हैं अथवा वे अपने इष्टदेव को भी इन्द्र-पूजित कह सकते हैं, किन्तु आपने जिन अकाट्य सिद्धान्तों या वस्तु-तत्त्व का यथार्थ निरूपण किया, उसका वे कैसे निराकरण कर सकते हैं ? "२ जैनागमों में तथा प्राचीन आचार्यों ने अपने रचित ग्रन्थों में इस दोषापत्ति का खण्डन या समाधान दूसरे पहलू से किया है। उनके कथन का फलितार्थ यह है कि अतिशयों आदि से तीर्थंकर भगवान की पहचान या परीक्षा करने में कठिनाई, संकोच या आनाकानी हो तो एक कसौटी तो बारह विशुद्ध आध्यात्मिक गुणों से युक्त होने की है। दूसरी कसौटी है - निम्नोक्त अठारह दोषों से रहित होने की । मानव-जीवन की दुर्बलता और आत्मिक अपूर्णता के सूचक अठारह दोष इस प्रकार हैं - ( १ ) मिथ्यात्व ( असत्य विश्वास, विपरीत श्रद्धा ), ( २ ) अज्ञान, (३) क्रोध, (४) मान (मद), (५) माया ( छल-कपट), (६) लोभ, (७) रति ( मनोनुकूल = मनोज्ञ वस्तु के मिलने पर हर्ष), (८) अरति (अमनोज्ञ = मन के प्रतिकूल वस्तु के मिलने पर शोक = खेद), (९) निद्रा ( दर्शनावरणीय कर्मजनित द्रव्य-भाव निद्रा), (१०) शोक (चिन्ता), (११) अलीक (असत्य), (१२) चौर्य (चोरी), (१३) मत्सर ( डाह, ईर्ष्या), (१४) भय, (१५) हिंसा, (१६) राग ( आसक्ति, मोह), (१७) क्रीड़ा ( खेल-तमाशा, नाचरंग), और (१८) हास्य (हँसी-मजाक)। एक आचार्य ने क्रोध, मान, माया, लोभ और जुगुप्सा के बदले दानादि पाँच अन्तराय, हिंसा, अलीक, चौर्य, मात्सर्य और क्रीड़ा के बदले अविरति, काय, जुगुप्सा और द्वेष, ये चार दोष कहे हैं। १. आप्त- परीक्षा (देवागम स्तोत्र), श्लो. १ २. क्षिप्येत वाऽन्यैः सदृशीक्रियेत वा, तवांघ्रिपीठे लुठनं सुरेशितुः । इदं यथावस्थित वस्तुदेशनं, परैः कथंकारमपाकरिष्यते ॥ - अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका १२ ३. (क) जैनतत्त्वप्रकाश, पृ. १६-१८ 'चिन्तन की मनोभूमि' से भाव ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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