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* विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति-हेतु * ८५ *
है कि उनके द्वारा सहजभाव से दिये गए उपदेश पर अमल करने वाले भक्त, श्रद्धालु या उपासक भक्त से भगवान, श्रद्धालु से श्रद्धेय और उपासक से उपास्य बन जाते हैं। उनके उपदेशों को जीवन में आचरित करने से भक्त और भगवान की, उपासक और उपासक के बीच की दूरी समाप्त हो जाती है। उनकी अतिशायिनी वाक्सरिता इसलिए प्रवाहित होती है, ताकि जन-जन इस सरिता में अवगाहन-स्नान करके अपने जीवन का कालुष्य धोकर उसे पवित्र दिशा की ओर मोड़ सके। तीर्थंकरों की सुधास्राविणी वाणी शाश्वत सत्यों का निरूपण करती है। वे, वे ही उद्गार निकालते हैं, जिनको उन्होंने जीवन में रमाये हैं, सत्य रूप में जीये हुए उनके वचन अतिशय-सम्पन्न इसलिए होते हैं कि उनमें सत्य के सिवाय कुछ नहीं होता। तीर्थंकरों की अतिशय-सम्पन्न मेघगम्भीर वाणी कभी निष्फल नहीं जाती। उनके वचन की ३५ विशेषताओं का वर्णन आगमों में किया है। उनकी वाणी की अमोघता का एक ही प्रमाण पर्याप्त है कि असंयम के पथ पर जाने के लिए उद्यत नवदीक्षित मेघकुमार मुनि को उनके जरा-से उद्बोधन ने संयम-पथ पर चलने के लिए उद्यत कर दिया। अतः साधिकार कहा जा सकता है कि उनकी वाणी में मोहतमिस्रा में भटकते हुए मानव को यथार्थ जीवन जीने का पथ-प्रदर्शन करने की क्षमता है। तीर्थंकरों के ३५ वचनातिशयों का ‘समवायांगसूत्र', 'अभिधान चिन्तामणि' आदि में इस प्रकार निरूपण है
(१) संस्कारवत्वम्-तीर्थंकर वाणी संस्कारयुक्त यानी संस्कृतादि लक्षणों से युक्त होती है। - (२) उदात्तत्वम्-उच्च स्वर वाली (उदात्त) होती है, ताकि समवसरण में उपविष्ट सारी परिषद् सुन सके।
(३) उपचारोपेतत्वम्-भगवद् वाणी तुच्छतारहित सम्मानपूर्ण गुणवाचक शब्दों से युक्त ग्राम्यतारहित होती है।
(४) गम्भीरशब्दयुक्तम्-भगवद् वाणी मेघगर्जनासम सूत्र और अर्थ दोनों से गम्भीर होती है या उच्चारण और तत्त्व दोनों दृष्टियों से उनके वचन गहन होते हैं। .. (५) अनुनादित्वम्-गुफा में या शिखरबद्ध प्रासाद में बोलने से उठने वाली प्रतिध्वनि की तरह भगवद् वाणी में प्रतिध्वनि उठती है।
(६) दाक्षिणत्वम्-भगवद् वचन दाक्षिण्य (निश्छलता और सरलता) से युक्त .. होते हैं।
१. (क) 'जैनभारती, वीतराग वन्दना विशेषांक' से भाव ग्रहण, पृ. १५३
(ख) 'जैनतत्त्वकलिका' से भावांश ग्रहण, पृ. ९
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