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________________ * ८४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * अपनी पूजा-प्रतिष्ठा या सत्कार सम्मान के लिए नहीं । ” ‘प्रश्नव्याकरणसूत्र' में भी इसी तथ्य को दोहराया गया है - " भगवान महावीर द्वारा समग्र जगत् के जीवों की (आत्म) रक्षारूप दया के प्रयोजन से प्रवचन कहे गए। " आशय यह है कि तीर्थंकर भगवान निरपेक्ष, निष्काम और निष्कामभाव से समभाव - तटस्थभाव एवं सहजभाव. से समस्त जगत् के जीवों के हित, कल्याण, आत्म-रक्षा, करुणा, अनुग्रह, मैत्री, बन्धुता और आत्मैकत्वभाव से प्रवचन देते हैं, धर्मोपदेश देते हैं, अर्थरूप में अध्यात्म-विकास प्रेरक शास्त्रकथन करते हैं, भव्य जीवों को बोध देते हैं । उनको अपने प्रवचनों, धर्मोपदेशों, शास्त्रकथन या बोध प्रदान के बदले में किसी से कुछ लेने, स्वार्थ सिद्ध करने या किसी प्रकार की पूजा-प्रतिष्ठा अथवा मान-सम्मान पाने की इच्छा नहीं होती, न ही अनुयायी वृद्धि का विकल्प होता है और न अहंकार, ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा आदि विभावों से प्रेरित होकर वे ऐसा करते हैं । सब कुछ सहजभाव से उनके द्वारा होता रहता है। यही उनको वचनातिशय की उपलब्धि का मूल कारण है । ' तीर्थंकरों की वचनातिशय की उपलब्धि के पैंतीस प्रकार तीर्थंकर आप्तपुरुष ( यथार्थ वक्ता अथवा यथावस्थित अर्थ - प्ररूपक) होते हैं। उनकी वाणी परिमित, यथार्थ, असंदिग्ध और सारयुक्त होती है। उसमें आत्म-कल्याण और पर- कल्याण की भावना निहित होती है। उनकी वाणी अतिशायिनी (अतिशययुक्त) इसलिए होती है कि वह अमोघ होती है। उनकी वाणी में मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्यभावना की तथा अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आम्रव, संवर, निर्जरा, धर्म, लोक और बोधिदुर्लभ, इन बारह अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) की सारयुक्त विशिष्ट स्रोतस्विनी प्रवाहित होती है। यही कारण है कि उनकी दिव्य वाणी से निःसृत एक भी प्रवचन ऐसा नहीं होता, जिसे सुनकर किसी व्यक्ति का अन्तःकरण प्रभावित न हो और वह अध्यात्म-पथ का पथिक न बनता हो । यह पहले कहा जा चुका है कि तमाम सांसारिक बन्धनों से मुक्त, जन्म-मरण की परम्परा का अन्त कर चुके तथा पूर्णतया कृतकृत्य तीर्थंकर परमात्मा एकमात्र जन-हित की भावना से प्रेरित होकर उपदेश देते हैं। उनका सहज स्वभाव ही ऐसा १. (क) 'चिन्तन की मनोभूमि' से भाव ग्रहण, पृ. ४४ (ख) देखें-भगवान महावीर के द्वारा की गई अट्ठवागरण के रूप में उत्तराध्ययनसूत्र तथा विपाकसूत्र की गाथाएँ तथा कथाएँ (ग) धर्ममुक्तवान् प्राणिनामनुग्रहार्थम्, न तु पूजा-सत्कारार्थम् । - सूत्रकृतांग टीका, श्रु. १, अ. ६, उ. ४ (घ) सव्व- जग-जीव- रक्खण-दयट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं । - प्रश्नव्याकरणसूत्र २/१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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