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* १०. * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
मनःसमाधान नहीं हो पाता। एक तो जैन आगम या प्राचीन धर्मग्रन्थों की भाषा प्राकृत या संस्कृत है। सामान्य पाठक उन ग्रन्थों के हार्द को समझ नहीं पाता। हिन्दी भाषा में उन शास्त्रों का अनुवाद भी हुआ है, विवेचन भी लिखा गया है. फिर भी उनमें कर्म के विषय में अस्तित्व से लेकर कर्म से सर्वथा मुक्ति तक सारा विवरण एक स्थान पर नहीं मिलता। भगवती, प्रज्ञापना, धवला, षटखण्डागम, महाबंधो, गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) आदि आगमों और ग्रन्थों में भी कहीं-कहीं तो केवल आस्रव एवं बंध का तथा संवर. निर्जरा और मोक्ष का संक्षिप्त वर्णन है, वह भी जटिल एवं दुरूह है। उनके भेद-प्रभेदों का विस्तृत वर्णन है, किन्तु उनका स्वरूप और उनमें उठने वाली शंकाओं का पर्याप्त समाधान नहीं मिलता। यद्यपि हिन्दी भाषा में कर्मसिद्धान्त एवं कर्मबाद के विषय पर कतिपय पुस्तकें अवश्य ही प्रकाशित हुई हैं, किन्तु उनमें आधुनिक मनोविज्ञान, योगविज्ञान, भौतिकविज्ञान तथा विविध दर्शनों और धर्मों के साथ तुलनात्मक तथा यथार्थ समीक्षात्मक वर्णन नहीं मिलता। किसी-किसी पुस्तक में कर्म और उसके आस्रव तथा बंध के विषय में रोचक वर्णन अवश्य दिया गया है। परन्तु उसमें बंधों की विचित्रता, संवरों के सक्रिय आधार और आचार के विषय में तथा मोक्षलक्षी निर्जरा के वास्तविक रूप का एवं मोक्ष के स्वरूप और उपायों का विस्तृत एवं सन्तोषकारक निरूपण नहीं है, है तो भी अत्यल्प है। कर्मविज्ञान नाम की विशेषता
__ इन सब दृष्टियों से कर्मसिद्धान्त का अथ से इति तक विशद, समाधानकारक, स्पष्ट तथा कर्म के संयोग और वियोग, दोनों पक्षों का सांगोपांग निरूपण करने हेतु हमने नौ भागों तथा तदनुरूप बारह खण्डों में कर्मविज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया है। हमने इसका नाम कर्मसिद्धान्त. कर्मवाद या कर्मशास्त्र न देकर कर्मविज्ञान इसलिए दिया है कि कर्मसिद्धान्त या कर्मवाद नाम दिया जाता तो उसमें कर्मों के आस्रव और बन्ध का ही विशेष रूप से वर्णन होता। यदि कर्मशास्त्र दिया जाता तो भी वह वर्णन कर्मों के भेद-प्रभेद एवं कारण तक प्रायः सीमित रहता। इसलिए कर्म से सम्बन्धित सभी चर्चाओं, पहलुओं, सभी शंकाओं तथा कर्म के निरोध और क्षय सम्बन्धी सभी तथ्यों पर सांगोपांग विवेचन करने तथा कर्म के अस्तित्व, वस्तुत्व. यथार्थ मुल्य-निर्णय एवं कर्म के बन्ध. उदय. उदीरणा, सत्ता, उदवर्तन, अपवर्तन, संक्रमण, उपशमन. क्षय, क्षयोपशम, निधत्त, निकाचना आदि सभी अंगोपांगों का विशद एवं युक्तिसंगत निरूपण करने हेतु इसका नाम कर्मविज्ञान दिया गया है। ज्ञान प्रायः जानकारी तक ही सीमित रहता है, जबकि विज्ञान में अनुभवयुक्त ज्ञान अथवा सक्रिय ज्ञान या आचार और आधारयुक्त ज्ञान होता है। यही कारण है कि कर्मविज्ञान में कर्म के दर्शनपक्ष, ज्ञानपक्ष और आचारपक्ष, इन तीनों का सांगोपांग विज्ञान प्रस्तुत किया गया है। इसमें जीवन और जगत् के सभी कर्मस्रोतों और कर्मबन्धों का तथा उनके निसेध और क्षय की वैज्ञानिक पद्धति से युक्तिसंगत व्याख्या की गई है। अतीत से वर्तमान तक के सैकड़ों विद्वानों, विचारकों, कर्मसिद्धान्त-मर्मज्ञों एवं लेखकों के तथ्यपूर्ण निष्कर्षों के प्रकाश में एवं शास्त्रीय, ऐतिहासिक, पौराणिक एवं आधुनिक घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में, नौ भागों में कर्मविज्ञान का विस्तृत विवेचन किया गया है। कर्मसिद्धान्त का हिन्दी साहित्य-जगत् में इतना विशद एवं सूक्ष्मातिसूक्ष्म वर्णन पढ़कर इसे कर्मविज्ञान का कोष कहा जा सकता है।
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