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* कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु *१३५ *
ईश्वर को जगत्-कर्तृत्व के पचड़े में न डालो
ऐसा सर्वकर्ममुक्त ईश्वर जगत् का कर्त्ता - हर्त्ता माना जाए तो उसमें अनेक आपेक्ष और दोषों के आने की सम्भावना है, जिसका विश्लेषण व निराकरण हम कर्मविज्ञान के द्वितीय भाग में कर आए हैं। वैसे देखा जाए तो आत्मा जब तक सोपाधिक ( शरीर और कर्म की उपाधि से युक्त) होती है, तभी तक उसमें परभाव कर्तृत्व होता है। सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा ईश्वर निरुपाधिक (शरीर-कर्मादि से मुक्त) हैं, उसमें परभावकर्तृत्व नहीं होता, केवल स्वभावरमणता होती है। इसीलिए सिद्ध ईश्वर में परभाव (सृष्टि) कर्तृत्व का आरोप करना युक्ति-विरुद्ध एवं निराधार है। अतः पूर्ण शुद्ध, निरंजन, निराकार सर्वकर्ममुक्त ईश्वर भला पुनः कर्ममल से लिपटकर संसार के जन्म-मरणादि चक्र में फँसने के लिए मोक्ष से लौटकर क्यों आएँगे ? यह दृश्यमान चेतन-अचेतनरूप जगत् प्रवाहरूप से अनादि - अनन्त है, प्रकृति के नियम से संचालित है। सभी प्राणी स्व-स्व-कर्मानुसार सुख-दुःख पाते हैं, कर्मों को बाँधते भी स्वयं हैं, तोड़ते भी स्वयं हैं। अतः जगत् के कर्तृत्व का भार किसी परमात्म-सत्ता (ईश्वर) पर डालने की जरूरत नहीं। प्रत्येक आशा अपने-अपने कर्मों का कर्ता-भोक्ता स्वयं है, वही अनन्त आत्मिक ऐश्वर्य से सम्पन्न ईश्वर है। अपनी सृष्टि का कर्त्ता स्वयं ही है। जैनदर्शन ने प्रत्येक आत्मा में निरूपित कर्तृत्ववाद प्ररूपित किया है।
परमात्म-भक्ति से आध्यात्मिक लाभ
जो व्यक्ति कर्मबद्ध हैं, वे इन कर्ममुक्त परमात्मद्वय का ध्यान, स्मरण, कीर्तन, स्तवन, स्तुति, गुणगान, अर्चन, वन्दन- नमन करते हैं, अथवा उनके स्वरूप का अन्तःकरण में चिन्तन-मनन करते हैं, मानसिकरूप से उनका सान्निध्य, सामीप्य या सन्निकटभाव प्राप्त करते हैं, उनको दर्शनविशुद्धि, आत्म-शक्ति, समता एवं वीतरागता की प्रेरणा आदि महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक लाभ मिलते हैं।
अरिहन्त और सिद्ध-परमात्मा अपने में सोये हुए परमात्मतत्त्व को जगाने, प्राप्त कराने के लिए प्रेरक हैं, प्रकाशस्तम्भ हैं, आदर्श हैं। सिद्ध या अरिहन्त प्रभु के प्रति भक्तिभाव, उनके सद्गुणों में बना रहे तो व्यक्ति के पास दुर्गुण, दुर्भाव, विभाव भी पास नहीं फटकेंगे । अतः सिद्ध- परमात्मा का अवलम्बन भव्य जीवों के लिए ससार-सागर, तारक, भवचक्र से रक्षक तथा परभावों में होने वाले राग-द्वेष से बचाने वाला है।
परमात्म-प्राप्ति का मूलाधार : आत्म-स्वभाव में स्थिरता
निश्चयदृष्टि से आत्मा और परमात्मा का स्वभाव समान
निश्चयदृष्टि से सामान्य आत्मा और परमात्मा का मूल स्वभाव एक-सा है। 'अप्पा सो परमप्पा' यह उक्ति भी इसी तथ्य को प्रमाणित करती है। 'प्रवचनसार' में भी इसी तथ्य को उजागर किया गया है"सिद्धोऽहं शुद्धोऽहं अनंत - णाणादि-गुण-समिद्धोऽहं ।" - मैं सिद्ध- परमात्मा हूँ, शुद्ध आत्मा हूँ, अनन्त ज्ञानादि गुणों से समृद्ध हूँ। शुद्ध, इस माने मैं हूँ कि निर्विकार, निर्विकल्प, परभावों-विभावों से रहित कर्ममलरहित आत्मा हूँ। आशय यह है कि व्यवहारदृष्टि से वर्तमान में कर्मलिप्त आत्मा का और सर्वकर्ममुक्त सिद्ध-परमात्मा का मूल स्वभाव और गुणधर्म एक समान है। दोनों का स्वभाव, गुणधर्म या स्वरूप सदृश होने के कारण ही कहा जाता है-आत्मा ही परमात्मा है अथवा आत्मा परमात्मा हो सकता है अथवा आत्मा में . परमात्मा बनने की योग्यता है। सिद्ध-परमात्मा का जो स्वभाव है, वही स्वभाव प्रगट करने की योग्यता साधक में है। मिट्टी और घड़े के स्वभाव में सदृशता है, इसीलिए तो मिट्टी से घड़ा बनता है।
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शक्ति (लब्धि) तो है, अभिव्यक्ति नहीं है।
परन्तु देखा जाए तो सिद्ध-परमात्मा बनने की सर्वाधिक योग्यता मनुष्य में है। उसमें यह पूर्ण विवेक हो सकता है कि परभाव और विभाव मेरे अपने नहीं हैं। अपूर्णता या विभिन्नता आत्मा का शुद्ध मूल स्वभाव नहीं है। उसकी आत्मा में भी अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त अव्याबाध-सुख (आनन्द) और अनन्त बलवीर्य (शक्ति) लब्धिरूप में हैं; परन्तु उनकी अभिव्यक्ति नहीं है। ज्ञानी सम्यग्दृष्टि मानव इस तथ्य को भलीभाँति हृदयंगम कर लेता है कि शक्तिरूप से आत्मा परमात्मा है, परन्तु वर्तमान में जो विसदृशता है,
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