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* १३४ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
अभी पूर्ण ईश्वर नहीं बन सकता है। इसलिए आचार्यों ने ईश्वर (आत्मिक ऐश्वर्य-सम्पन्न परमात्मा) को तीन .. भागों में वर्गीकृत कर दिया है-(१) सिद्ध (अष्टकर्मों से मुक्त) ईश्वर, मुक्त (चार घातिकर्मों से मुक्त) ईश्वर
और बद्ध ईश्वर वे हैं, जो अभी आठों की कर्मों से न्यूनाधिक रूप में बद्ध हैं, वे संसारस्थ साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका या अन्य संसारस्थ सभी जीव हैं।
सिद्ध ईश्वर में ईश्वरत्व (आत्मिक ऐश्वर्य) पूर्णतया प्रगट है, मुक्त ईश्वर में सदेहमुक्त, अरिहन्त, सामान्यकेवली या तीर्थकर हैं, जिनमें ईश्वरत्व पूर्णतया प्रकट नहीं है, किन्तु देहयुक्त होने से अर्ध-ईश्वरत्व प्रकट है। और वद्ध ईश्वर में दो कोटि के जीव हैं-अल्पबद्ध और अधिककर्मबद्ध। चतुर्थ गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक के साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, जो कर्ममुक्ति के लिए पुरुषार्थ करते हैंसंवर-निर्जरा द्वारा, वे अल्पकर्मबद्ध हैं, और जो मिथ्यात्वादि कारणों से अधिकांश रूप से कर्मों से बद्ध हैं, वे अधिक कर्मबद्ध हैं, ये सब बद्ध ईश्वर की कोटि में आते हैं। जैनदृष्टि से ईश्वर एक नहीं, अनन्त हैं
जैनधर्म की दृष्टि में पूर्वोक्त सिद्ध-मुक्त ईश्वर एक नहीं, अनन्त हैं। जिन्होंने भी आठ कर्मों से, जन्म-मरणादि संसार से, सर्वदुःखों से मुक्ति पा ली, राग, द्वेष, मोह, कषाय आदि विकारों पर पूर्णतया विजय पा ली, वे सब भूतकाल में भी सिद्ध-मुक्त हुए हैं, भविष्य में भी होंगे, और वर्तमान में भी महाविदेह क्षेत्र से होते हैं। वर्तमान में जो भी अर्हद्दशा-प्राप्त सामान्यकेवली या तीर्थंकर कोटि के सदेहमुक्त (जीवन्मुक्त) ईश्वर हैं, वे भविष्य में सिद्ध कोटि के विदेहमुक्त ईश्वर अवश्य बनेंगे। और जो चतुर्थ गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक के बद्ध कोटि के ईश्वर हैं, वे भी मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ करके एक दिन वीतराग अर्हद्दशा-प्राप्त केवलज्ञानी तथा सिद्ध-मुक्त कोटि के ईश्वर हो सकेंगे। अगर एक ही ईश्वर माना जाए तो ईश्वरत्व-प्राप्ति या मोक्ष-प्राप्ति (परमात्मपद-प्राप्ति) के लिये किया गया पुरुषार्थ व्यर्थ हो जाएगा। इसीलिए पहले कहा गया है-जो भी मानव सम्यग्ज्ञानादि चतुष्टयरूप मोक्षमार्ग की विधिवत् साधना-आराधना करता है, वह संसार से, जन्म-मरणादि दुःखों से-सर्व कर्मों से सर्वथा मुक्त सिद्ध-बुद्ध परमात्मा (ईश्वर) बन सकता है। भगवद्गीता भी इस तथ्य का समर्थन करती है। जैनमान्य और वैदिकमान्य ईश्वर जन्म से ही अजन्मा नहीं, पुरुषार्थ से है।
जैनधर्ममान्य सिद्ध-परमात्मा कोटि के ईश्वर और वैदिकधर्म के गीतामान्य ईश्वर के स्वरूप में कोई खास अन्तर नहीं है, परन्तु जैनधर्म इस तथ्य को स्वीकार नहीं करता कि तथाकथित ईश्वर सदा से ही अजन्मा है, उसे माँ के उदर से जन्म लेना नहीं पड़ता, वह तो जन्म से ईश्वर है, उसे ईश्वरत्व-प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय की किसी प्रकार की साधना या कर्मक्षय के लिए पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं होती; इस अयुक्तिसंगत तर्क का गीता और जैनागम दोनों द्वारा खण्डन हो जाता है। जो भी पूर्वोक्त प्रकार सर्वकर्ममुक्त ईश्वर बनता है, वह एक जन्म या अनेक जन्मों के पुरुषार्थ से ही बनता है। हाँ, ईश्वर बनने के बाद वह अजन्मा (जन्म-मरण से रहित) हो जाता है, पहले नहीं। इसलिए ईश्वर ‘स्वयम्भू' (स्वयं जन्म ले लेता है या स्वयं हो जाता है, यह कथन भी किसी तरह युक्तिसंगत नहीं। हाँ, उसे ईश्वरत्व स्वयं पुरुषार्थ से मिलता है, इस दृष्टि से स्वयम्भू है।
कतिपय दार्शनिक जीवात्मा का एकमात्र एक परमात्मा (ईश्वर) में विलीन होना मानते हैं या उसे परब्रह्म परमात्मा का अंशरूप मानते हैं, ये दोनों तथ्य जैनदर्शनमान्य नहीं करता। जो भी सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है, वह स्वतंत्र हो जाता है, जितने भी मुक्त आत्माएँ हैं, वे सब अपने आप में आध्यात्मिक विकास में परिपूर्ण हैं, शुद्ध हैं, उन्हें दूसरे किसी मुक्त आत्मा का आश्रय लेने या विलीन होने की आवश्यकता नहीं रहती। जितने भी सिद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्माएँ हैं उनमें आत्मिकदृष्टि से कोई भी भेद करना सम्भव ही नहीं है। क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्न, प्रत्येकबोधित, बुद्धबोधित, ज्ञान, अल्पबहुत्व, अन्तर, अवगाहना आदि की अपेक्षा मुक्तात्माओं में जो भेद (अन्तर) की कल्पना की गई है, वह सिर्फ व्यवहारनय की दृष्टि से तथा मुक्त होने से पूर्व की अवस्था-विशेष की दृष्टि से की गई है।
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