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________________ * १२६ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * नरदेव, इन्द्रदेव या स्वर्ग के देव तथा धर्मदेव से भी बढ़कर होने से देवाधिदेव कहलाते हैं। इसीलिए तीर्थंकर के लिए जीवन्मुक्त, सदेहमुक्त, सयोगीकेवली, अर्हन्त परमात्मा, यथावस्थित-पदार्थवादी आप्तपुरुष, ईश्वर, परमेश्वर, परब्रह्म, अनन्त एवं सच्चिदानन्द आदि विशेषण भी प्रयुक्त किये गये हैं। तीर्थकर अरिहंतों के चार विशिष्ट अतिशय अरिहन्त तीर्थंकर देव, दानव और मानव इन तीनों द्वारा पूजित तथा बारह गुणसहित तथा अठारह दोषरहित तथा पूर्वोक्त विशेषताओं तथा अर्हताओं से युक्त होने से त्रिलोकपूज्य कहलाते हैं। इन सब विशेषताओं और अर्हताओं को अभिव्यक्त करने वाले पुण्य प्रकृति के उत्कर्ष-अतिशयस्वरूप चार विशिष्ट अतिशय उनमें होते हैं-(१) पजातिशय. (२) ज्ञानातिशय. (3) वचनातिशय. और (४) अपायापममातिशय। अशोकवृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, सिंहासन, भामण्डल, देवदुन्दुभि और आतपत्र (छत्र); ये आठ महाप्रातिहार्य पूजातिशय के प्रतीकरूप में तथा ६४ इन्द्रों द्वारा पूजनीय होने से उनका पूजातिशय उपलक्षित होता है। अरिहन्त तीर्थकर अनन्त ज्ञान-दर्शन के धारक, सम्पूर्ण ज्ञानी, त्रिकाल-त्रिलोकज्ञ, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होने से उनका अप्रकट ज्ञानातिशय समग्र लोक के अज्ञान तथा मिथ्यात्व के अन्धकार को दूर करने से लोक . तथा अलोक के प्रकाशक के रूप में प्रकट होता है। केवलज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् संघ-स्थापना से लेकर आयु के अन्तिम क्षण तक पूर्वकृत विशिष्ट पुण्यातिशयवश समवायांग सूत्रोक्त ३५ वचनातिशय सहजरूप में धर्म-प्रचार में, संघ-सेवा में, जन-कल्याण में, अनेक लोगों को बोधिलाभ देने में तथा धर्मोपदेश देने में सूर्य की तरह तटस्थ निमित्त बनकर अभिव्यक्त हुआ है। उनके तीर्थंकर नामकर्मजनित कतपिय विशिष्ट पुण्य-प्रकृतियों के उदयवश शरीरगत, वचनगत, प्रकृतिगत, पदार्थगत, प्राणिगत एवं व्यवहारगत अपाय (विघ्न-बाधाएँ, अड़चनें, विपदाएँ, उपद्रव आदि) स्वतः दूर हो जाते हैं, उनके निवारण की अभिव्यक्ति कराने हेतु समवायांगसूत्रोक्त ३४ अपायापगमातिशय प्रकट होते हैं। यथा-उनका शरीर रोगरहित होता है, केश रोमश्मश्रु नहीं बढ़ते, इति महामारी रोगादि उनके विहरण क्षेत्र में नहीं होते इत्यादि। सभी धर्मों और दर्शनों के अनुगामी भक्तों ने अपने-अपने आराध्यपुरुषों के साथ कतिपय चमत्कार, आडम्बर आदि जोड़ दिये। अतः तीर्थंकरों की सही पहचान के लिए उनको पूर्वनिबन्ध में बताये गए आध्यात्मिक दृष्टि से १८ दोषों से रहित तथा १२ गुणों से सहित बताया गया है। तथैव सामान्य केवलियों से तीर्थंकरों की अलग पहचान के लिए निम्नोक्त १२ गुणों का प्रतिपादन किया गया-(१-४) अनन्त ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप, (५) अनन्त बलवीर्य, (६) अनन्त क्षायिक सम्यक्त्व, ये छह गुण आत्मिक विभूतियाँ हैं, और (७) वज्रऋषभनाराच-संहनन, (८) समचतुरस्र-संस्थान, (९) चौंतीस अतिशय, (१०) पैंतीस वाणी के अतिशय (गुण), (११) एक हजार आठ लक्षण, और (१२) चौंसठ इन्द्रों के पूज्य; ये छह गुण भौतिक विभूतियाँ हैं। अतएव तीर्थंकर की यथार्थ परीक्षा द्वादश गुणसहितता और अष्टादश दोषरहितता से ही होती है। जब तक मनुष्य इन १८ दोषों से सर्वथा मुक्त नहीं हो जाता, तब तक वह आध्यात्मिक शुद्धि और सिद्धि के पूर्ण विकास के पद पर नहीं पहुँच सकता। 'आप्तपरीक्षा' के अनुसार तीर्थंकरों की वास्तविक परीक्षा और पहचान पूर्वोक्त १२ आध्यात्मिक गुणों की युक्तता तथा १८ दोषरहितता से ही की जानी चाहिए। मात्र अतिशयों के आधार पर नहीं। जैनमान्य तीर्थंकर अवतारवाद का नहीं, उत्तारवाद का प्रतीक अन्य धर्म-परम्पराओं में जहाँ ईश्वर कर्तृत्ववाद तथा ईश्वर के प्रतिनिधित्व के लिए अवतारवाद को स्थान दिया गया है, वहाँ जैनधर्म में इन दोनों के बदले आत्म-कर्तृत्ववाद तथा उत्तारवाद की युक्तिसंगत, प्रमाणसम्मत एवं अकाट्य प्ररूपणा की गई है। ईश्वर कर्तृत्ववाद में परम आत्मिक ऐश्वर्य-सम्पन्न ईश्वर के सृष्टिकर्तृत्व में कई आक्षेप-विक्षेप आते हैं, जिसका कर्मविज्ञान के पूर्व भागों में युक्ति प्रमाणसंगत समाधान किया है। जैनदर्शन में प्रत्येक आत्मा को निश्चयनय की पारमार्थिक) दृष्टि से अनन्त ज्ञानादि परम ऐश्वर्य-सम्पन्न होने के कारण ईश्वर माना जाता है, किन्तु वर्तमान में संसारी आत्माएँ आठ कर्मों के आवरण से आवृत हैं, उनका ईश्वरत्व अनभिव्यक्त एवं सुषुप्त है। प्रत्येक संसारी आत्मा अपने शुभ = अशुभ कर्मों का कर्ता, फलभोक्ता है, अतएव आत्मा ही अपनी सृष्टि का कर्ता ईश्वर है, यह सिद्ध होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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