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________________ * ११८ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * छद्मस्थ और केवली के चारित्रमोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय, इन चार घातिको के उदय-अनुदय (क्षय) को लेकर अन्य कुछ लक्षणों में अन्तर है। केवली और छद्मस्थ के जानने-देखने में विशेष अन्तर इसके अतिरिक्त भगवतीसूत्रानुसार अन्तकर, अन्तिम शरीरी, चरमकर्म तथा चरमनिर्जरा को केवली पारमार्थिक (अतीन्द्रिय) प्रत्यक्ष से जान-देख पाते हैं, जबकि छद्मस्थ मानव केवली की तरह अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष से इन्हें नहीं जान-देख पाता, किन्तु किसी केवली या केवली के श्रावक-श्राविका या उपासक-उपासिका से अथवा केवलीपाक्षिक (स्वयंबुद्ध) से, या उनके श्रावक-श्राविका या उपासक-उपासिका आदि में से किसी भी एक से सुनकर अथवा इन्द्रिय प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि प्रमाणों द्वारा जान-देख सकता है। आगमों और . ग्रन्थों में केवलज्ञानी होने के विविध प्रकार पाये जाते हैं। उन पर से हम केवली के निम्नोक्त १८ प्रकारे निश्चित कर सकते हैं-(१) सयोगीकेवली, (२) अयोगीकेवली, (३) अन्तकृत्केवली, (४) प्रथमसमयकेवली, (५) अप्रथमसमयकेवली, (६) स्वयंबुद्धकेवली, (७) प्रत्येकबुद्धकेवली, (८) बुद्धबोधितकेवली, (९) चरमशरीरीकेवली, (१०) स्नातकनिर्ग्रन्थकेवली, (११) केवली-समुद्घातकतकिवली, (१२) केवलीसमुद्घातअकतकिवली, (१३) क्षीणमोहीकेवली, (१४) गृहस्थावस्था में हुए केवली, (१५) क्षीणभोगीकेवली, (१६) तीर्थंकरकेवली, (१७) भवस्थकेवली, और (१८) सिद्धकेवली। भवस्थकेवली और सिद्धकेवली में अन्तर भवस्थकेवली को हम सामान्यकेवली कह सकते हैं, जो अभी चार अघातिकर्मों से युक्त हैं, जबकि : सिद्धकेवली ने घाति-अघाति आठों ही कर्मों का सर्वथा क्षय कर दिया है। इन दोनों में कुछ अन्य बातों में समानता और कुछ बातों में असमानता भी है। जैसे कि भवस्थकेवली और सिद्धकेवली दोनों ही छद्मस्थ को तथा अवधिज्ञानी, परम अवधिज्ञानी, समस्त केवलज्ञानियों को तथा समस्त के नीसिद्धों को जानते-देखते हैं तथा क्या वे बोलते हैं ? आँखें खोलते-मूंदते हैं ? शरीर का आकुंचन-प्रसारण करते हैं? तथा खड़े होते, स्थिर रहते, बैठते, निवास करते या अल्पकालिक निवास करते हैं इन प्रश्नों के उत्तर में कहा गया हैसिद्धकेवली ये सब क्रियाएँ अशरीरी होने तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार-पराक्रम से रहित होने से नहीं करते; जबकि भवस्थकेवली सशरीरी होने से ये सब क्रियाएँ करते हैं। इसके अतिरिक्त सामान्यकेवली या प्रथमसमयकेवली चार घातिकर्मों का तो क्षय कर चुके हैं, किन्तु उनके चार अघातिकर्म अभी क्षीण नहीं हुए, उनका पूर्णतया वेदन करना (भोगना) नहीं हुआ; जबकि सिद्धकेवली आठों ही कर्मों का सर्वथा क्षय कर चुके हैं। सामान्यकेवली अनन्त ज्ञानादि से परिपूर्ण तथा कृतकृत्य होते हुए भी कई केवली वेदनीयादि तीन अघातिकर्मों को बन्धन और स्थिति दोनों से आयुकर्म के बराबर करने हेतु केवलीसमुद्घात करते हैं और जिनके ये चार कर्म आयुष्यकर्म के बराबर होते हैं, उन्हें केवलीसमुद्घात करने की जरूरत नहीं पड़ती और सिद्धों को तो समुद्घात करने की कतई जरूरत नहीं पड़ती; क्योंकि उन्होंने आठों ही कर्मों को भोगकर क्षय कर दिये हैं। सिद्ध अशरीरी, सघन आत्म-प्रदेशों वाले, कृतार्थ, नीरज, निष्कल्प, पूर्ण विशुद्ध आदि होते हैं, जबकि सामान्यकेवली या तीर्थंकरकेवली तक में ये विशेषण घटित नहीं होते। अन्तकृत्केवली और सामान्यकेवली में अन्तर अन्तकृत्केवली और सामान्यकेवली दोनों ही उसी भव में जन्म-मरण का, कर्मों का तथा समस्त दुःखों का अन्त कर देते हैं, दोनों उसी भव में मोक्ष जाने वाले हैं। किन्तु सामान्यकेवली और अन्तकृत्केवली में अन्तर यह है कि सामान्यकेवली केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद उनका आयुष्य लम्बा हो तो तुरन्त जन्म-मरण का, सर्वकर्मों का या सर्वदुःखों का अन्त नहीं कर पाते, जबकि अन्तकृत्केवली केवलज्ञान के बाद तुरन्त ही इन सब का अन्त कर डालते हैं। अन्तकृद्दशासूत्र में जिन ९0 महान् आत्माओं का वर्णन है, जिन्होंने केवलज्ञान होने के बाद तुरन्त ही इन सब का अन्त कर डाला था। क्षीणभोगी होने पर ही केवलज्ञानादि की उपलब्धि ‘धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में चरमशरीरी की पहचान के लिए उसे प्राप्त १७ बातों का वर्णन है। कोई भी साधक उत्कट तप से या रोगादि से शरीर क्षीण और अशक्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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