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@ मोक्ष के निकट पहुँचाने वाला उपकारी समाधिमरण , ३८३ :
समाधिमरण हो जाए तो अनन्त काल का असमाधिमरण टल जाता है और वह जीव संसार के आधि, व्याधि और उपाधिरूप समस्त दुःखों से विमुक्त होकर स्व-स्वरूप की शुद्धता प्राप्त करके शिव (सिद्ध-बुद्ध-मुक्त) हो जाता है। निजानन्द और स्वरूप-शान्ति में सदा-सदा के लिए निमग्न हो जाता है। ऐसा है समाधिमरण का अपूर्व प्रभाव। ऐसी है समाधिमरण की विराट, अद्भुत और तेजस्वी शक्ति !
समाधिमरण में असफलता का कारण : देहादि के प्रति मूर्छा परन्तु समाधिमरण की इतनी महिमा और गरिमा समझने पर भी शरीर और शरीर सम्बद्ध सजीव-निर्जीव वस्तुओं के प्रति मूर्छावश अनादिकाल से जीव विपरीत मार्ग पर चला है, सांसारिक सुख की तथा शरीरादि की ममता-मूर्छा ने उसे दृढ़ता से बाँध लिया है। मनुष्य जिस अवस्था में है या रहता आया है, उसे छोड़ना नहीं चाहता। जिस मकान या गाँव में रहता है, उसे छोड़ना अत्यन्त कठिन लगता है। उसने जहाँ-जहाँ जिस प्रकार से शरीर धारण करके जन्म लिया है, वहाँ-वहाँ वह देहात्मबुद्धि-देहाध्यास रखकर चला है। देव-गुरु-निर्ग्रन्थ के वचन, शास्त्र-श्रवण, धर्मक्रियाएँ करने पर भी अन्तकाल में देह, स्त्री-पुत्रादि तथा समस्त अचेतन पदार्थों के प्रति ममत्वभाव रखकर शरीर-त्याग किया, इससे असमाधिमरण ही उसने प्राप्त किया ! प्रत्येक बार मरण के अवसर पर वह ऐसे ही करता आया है। देव-दुर्लभ मनुष्यदेह इससे पूर्व अनन्त बार प्राप्त होने पर भी इसकी उत्तमता को नहीं समझने से कुछ भी सफलता नहीं मिली।
___ कुसंस्कार : समाधिमरण की साधना में बाधक ___समाधिमरण में दूसरी बाधा है-कुसंस्कार। व्यक्ति के कुसंस्कार इतने सघन बन जाते हैं कि वह इस शरीर के प्रति ममता-मूर्छा को छोड़ना नहीं चाहता। इतना ही नहीं, इस शरीर से जो सम्बन्ध बना हुआ है, उसे छोड़ने का उसका मन नहीं होता। वह मान लेता है कि परिवार, घर और धन आदि सब छूट जाएँगे। बीमारी बढ़ रही है। ठीक से खाया-पीया भी नहीं जाता। साँस लेने में भी दिक्कत होती है, फिर भी उसका प्रयत्न रहता है-जैसे-तैसे जीने का। जीने में कोई सार नहीं है, फिर भी स्वेच्छा से समभावपूर्वक शान्ति से मृत्यु को स्वीकार करना उसे अच्छा नहीं लगता। ये ममता-मूर्छा के कुसंस्कार समाधिपूर्वक देह को छोड़ने नहीं देते। समाधिमरण का एक विशिष्ट प्रयोग है-मृत्युमहोत्सव। यह जिसे हृदयंगम हो जाता है, उस व्यक्ति को मृत्यु की चिन्ता नहीं सताती। जो इस प्रकार की निश्चिन्तता का जीवन जीता है, वही इसकी अनुभूति कर सकता है। उसे न तो जीने की चिन्ता सताती है, न ही पिछले पृष्ठ का शेष- (ग) मृत्योविभेषि किं मूढ़ ! भीतं मुंचति नो यमः।
अजातं नैव गृह्णाति, कुरु यत्नमजन्मनि॥
-अज्ञात
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