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ॐ ३८२ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ *
तप के संताप को (समभाव से) सहन करने का, व्रत-पालन का एवं श्रुत (शास्त्रों) के पठन करने का कोई फल हो तो वह समाधिपूर्वक यानी अपने आत्मा द्वारा मनःशान्ति और समतापूर्वक इस देह-गेह-धनादि का त्याग करना है।॥१६॥
'अतिपरिचय से अवज्ञा होती है', इस लोकोक्ति के अनुसार जिसका अत्यन्त परिचय हो जाता है, उससे लम्बे अर्से बाद अप्रीति उत्पन्न हो जाती है, नई वस्तु के संग में प्रीति उत्पन्न होती है। अतः हे आत्मन् ! इस शरीर का दीर्घकाल तक तुझे परिचय रहा है, फिर भी तुझे इसके प्रति अप्रीति क्यों नहीं होती? और नये पर्याय (शरीर) के लाभ से भय क्यों करता है॥१७॥ ___ इस प्रकार समाधिमरण की साधना करने वाला भाग्यवान् जीव स्वर्ग में सुख भोगकर पुनः मनुष्यलोक में पवित्र निर्मल कुल में, अनेक लोगों के चित्त को आनन्दरूप जन्म धारण करके अपने स्वजन आदि को विविध प्रकार की वांछा के अनुरूप धनादिरूप फल देकर तथा पूर्व पुण्य से उपार्जित भोगों को अहर्निश भोगकर आयुष्य के अनुसार अल्पकाल तक भूमण्डल में वीतरागभाव से विचरण करके, जैसे नृत्यशाला में नृत्य करने वाला नर्तक पुरुषलोक में आनन्द उत्पन्न करके चला जाता है, वैसे ही सत्साधक (संत) समस्त लोक में आनन्द उत्पन्न करके स्वयमेव देह का त्याग करके शुद्ध, बुद्ध, मुक्त चैतन्यघन पद में विराजमान (सदा के लिए स्थित) हो जाता है॥१८॥ समाधिमरण में सबसे बड़ी तीन बाधाएँ
वस्तुतः समाधिमरण के साथ-साथ जीवन को भी समाधिपूर्ण बनाना आवश्यक है। यदि जीवन समाधिपूर्ण है तो व्यक्ति को समाधिमरण की ओर भी ध्यान केन्द्रित करना होगा। क्योंकि कदापि यह नहीं सोचना चाहिए कि बुढ़ापा आएगा, अवस्था ढलेगी, तब समाधिमरण की तैयारी करेंगे। समाधिमरण की तैयारी क्रमशः करनी होती है। इसमें सबसे बड़ी बाधाएँ तीन हैं-मूर्छा, अजागृति और कुसंस्कार। पूर्वोक्त पंक्तियों में मृत्यु को महोत्सवरूप में समझाने पर भी व्यक्ति के मन में मृत्यु का डर निकल गया हो, ऐसा प्रायः प्रतीत नहीं होता। जीने की मूर्छा मनुष्य को समाधिमरण की ओर प्रस्थान नहीं करने देती। जबकि एक आचार्य ने कहा है"अरे मूढ़ ! मृत्यु से क्यों डरता है ? क्या मरने वाले को मृत्यु छोड़ देती है ? (अतः मृत्यु से बचना हो तो) अजन्मा (जन्म-मरणरहित) होने का प्रयत्न कर; क्योंकि जो जन्म नहीं लेता, उसे मृत्यु पकड़ नहीं सकती।''२ एक बार समभावपूर्वक १. (क) 'मृत्युमहोत्सव' (स्व. पं. सदासुख जी कृत वचनिका सहित), पृ. १४-३२
(ख) 'समाधि-साधना' से साभार उद्धृत २. (क) 'समाधिमरण' (भोगीलाल गि. शेठ) से भाव ग्रहण __ (ख) 'जैनधर्म : अर्हत् और अर्हताएँ' (आ. महाप्रज्ञ) से भाव ग्रहण
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