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________________ * ३६२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ * और वैराग्य से सुवासित है, उनके लिए मृत्यु मोद का कारणं है।'' भगवान महावीर का उपदेश सुनकर विरक्त बालक अतिमुक्तककुमार ने अपने माता-पिता से यही कहा था-“हे माता-पिता ! मैं जानता हूँ कि जिसने जन्म लिया है, उसे एक दिन अवश्य ही मरना है। परन्तु कब मरना है, यह मैं नहीं जानता।" मृत्यु की बात को टालने या भूलने से मृत्यु टल नहीं सकती ____किसी पर कर्ज चढ़ा हुआ है, वह अगर कर्ज की बात को भूलने का प्रयास करे या उसका स्मरण भी न करना चाहे, इससे कर्ज टलता नहीं, इसी प्रकार मनुष्य अपने मरने की बात को टालना या भूलना चाहे, इससे मरण टल नहीं. सकता। कर्ज और मौत दोनों की यात्रा दिन-रात चलती ही रहती है। अतः मरणं का स्मरण टालने से मनुष्य ने खोया ही है, कमाया नहीं है। अगर उत्कट रीति से मरण का विचार या दर्शन जागृतिपूर्वक आत्म-शुद्धि की दृष्टि से किया जाए तो मनुष्य बहुत-सी गलतियों, अपराधों, दोषों और भूलों से बच सकता है, उसके आत्म-विश्वास और निर्भयता में वृद्धि हो सकती है। वह अपने जीवन को व्यर्थ की बातों में, पापकर्मों में, दुष्कर्मों में, हिंसादि या कषायादि विकारों में बर्वाद नहीं करेगा। मनुष्य-जीवन को कृतार्थ बनाने में उसे सफलता मिलेगी। अतः जब मरण अनिवार्य है, तब उसी को हम अपने जीवन का पहरेदार क्यों न बनावें? मृत्यु के प्रति भीति या भ्रान्ति दोनों जीवन के प्रति आसक्ति और मोह बढ़ाती हैं ___ कुछ लोगों का तर्क है-जीवन के अन्त में मरण तो आने वाला है ही। फिर अभी से उसका स्मरण करके हम जीवन जीने का आनन्द किरकिरा क्यों करें? अधिकांश जीवनमोही व्यक्तियों की प्रायः यही वृत्ति होती है। इससे सबसे बड़ी हानि यह होती है कि ऐसे जीवनमोही मनुष्य मरण को पहचान नहीं पाते और मृत्यु के प्रति उसका भय मुख्यतया तीन कारणों से दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है-(१) मृत्यु के सम्बन्ध में गलत धारणा, (२) जीवन के प्रति तथा शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति आसक्ति और जीने का व्यामोह, (३) अगले जन्म के लिए सुगति का या शुभ कर्मों का अभाव अथवा संवर-निर्जरा द्वारा कर्मों से या जन्म-मरणादि से सर्वथा मुक्त होने के प्रयत्न का अभाव। जीवन एक यात्रा है। आज मानव-यात्री मानव-जीवनरूपी स्टेशन पर रुका है। यात्रा अभी पूरी नहीं हुई है। प्लेटफार्म या धर्मशाला विश्राम-स्थल है, घर नहीं। आज या कल आगे के लिए प्रस्थान करना है। यह प्रस्थान ही मृत्यु है। जैसे यात्री को प्रस्थान से डर नहीं, तो फिर प्राणी को मृत्युरूपी प्रस्थान से डर क्यों? १. संसारासक्त चित्तानां मृत्युीत्यै भवेन्नृणाम्। मोदायते पुनः सोऽपि ज्ञान-वैराग्य-वासिनाम्। -मृत्युमहोत्सव, गा. १0 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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