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ॐ मोक्ष के निकट पहुँचाने वाला उपकारी समाधिमरण @ ३६१ *
भी उन्हें उठा ले जा सकती है। उनके सभी मनसूबों को वह धूल में मिला देगी। उन्होंने जीवन-पट को विस्तार से फैला रखा है, किन्तु उस पट को समेटने की रुचि नहीं है और कला भी नहीं आती।
जीवनकला की तरह मृत्युकला में पारंगत ही सच्चा कलाकार भगवान महावीर जैसे मूर्धन्य पारगामी वस्तुतत्त्व-द्रष्टाओं ने जैसे जीवन को एक कला कहा है, वैसे मृत्यु को भी एक कला माना है। जो व्यक्ति जीवन और मरण दोनों कलाओं में पारंगत हैं, वही सच्चा और सफल कलाकार है। भारतीय संस्कृति का वज्र आघोष है कि मानव-जीवन में जीवन और मरण का खेल अनन्त काल से चल रहा है। सच्चा खिलाड़ी वह है जो इस खेल को कलात्मक ढंग से खेलता है। जो जीवन के खेल को विवेकपूर्ण कलात्मक ढंग से खेलता है, वह मरने के खेल को भी वीरतापूर्वक खेलता है। जिस साधक ने जीवनकला के साथ-साथ मृत्युकला का भी सम्यक्-प्रकार से अध्ययन और अभ्यास किया है, वह न तो जीवन में आने वाले विविध झंझावातों से झिझकता है और न ही मृत्यु से डरता है। मृत्यु आ भी जाए तो वह हँसते, मुस्कराते उसका स्वागत करता है। विना किसी उद्विग्नता, खिन्नता या अशान्ति के वह प्राणों का त्याग करता है।
जिसके पास धर्म पाथेय है, वह मोक्षयात्री मृत्यु से
घबराता नहीं, प्रसन्न होता है जिस यात्री के पास पाथेय होता है, वह निश्चिन्तता के साथ मार्ग को तय करता हुआ मंजिल तक पहुँच जाता है, उसी प्रकार जिस मोक्षयात्री के पास रत्नत्रयरूप धर्म का पाथेय है, वह निश्चित और निर्भय होकर मोक्ष-पथ को पार करता हुआ शीघ्र ही मंजिल (मोक्ष) तक सकुशल पहुँच जाता है। जिस साधक ने जीवनकला के साथ-साथ शान्ति, समाधि, समता और बोधि का अभ्यास किया है, उसे मृत्युकला कठिन नहीं लगती, वह मृत्यु से भयभीत, त्रस्त और उद्विग्न नहीं होता।' 'आतुर-प्रत्याख्यान' के अनुसार-उसकी अन्तरात्मा का नाद होता है-“मैंने सद्गति का मार्ग ग्रहण किया है (अर्थात् धर्म की आराधना और संयम की साधना की है), इसलिए अब मुझे मृत्यु से भय नहीं है। मेरे लिए मृत्यु विषाद का नहीं, आह्लाद का कारण है।"र 'मृत्युमहोत्सव' में स्पष्ट बताया है-“जिन मनुष्यों का चित्त संसार में आसक्त है, उनके लिए मृत्यु भीति का कारण है, जिसका चित्त ज्ञान १. तुलना करें
मृत्युमार्गे प्रवृत्तस्य वीतरागोददातु मे। समाधि-वोधि-पाथेयं यावन्मुक्तिपुरी पुरः।
-मृत्युमहोत्सव, गा.१ .. २. गहिओ पुग्गइ-मग्गो नाऽहं मरणस्स वीहेमि।
-आतुर-प्रत्याख्यान, गा. ६३
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