________________
* ३३४ कर्मविज्ञान : भाग ८
ऐसी स्थिति में इन पाँचों द्रव्य - आचारों से सर्वकर्मक्षयरूप मोक्षलक्ष्य की सिद्धि नहीं हो सकेगी । '
अथवा पंच- आचार को विपरीत रूप में अविधिपूर्वक क्रियान्वित करे तो भी कर्ममुक्तिरूप मोक्षलाभ नहीं
अथवा आचार-यंत्र के आत्मारूपी संचालक को मोहकर्म के कारण अज्ञानता, अविद्या, मोह-मूढ़ता या मिथ्यात्व के वश इन पंचाचार रूप आचार-यंत्र के संचालन का भान ही न हो अथवा देव गुरु- धर्म - शास्त्र के किंचित् पठन-श्रवण से कदाचित् भान भी हो तो भी भ्रान्ति, अरुचि, अनुत्साह, प्रमाद, विषयासक्ति या देवादि - मूढ़ता, अन्ध-श्रद्धा, अन्ध-विश्वास आदि बाधक कारणों के कारण इनको अपनी भूमिका के अनुसार जीवन में क्रियान्वित या आचरण में परिणत न करे। या किन्हीं नास्तिकों या कुगुरु-कुदेव-कुधर्मों या धर्मध्वजियों, पाखण्डियों के चक्कर में पड़कर इन्हीं . पंचाचारों को विपरीत रूप में, अविधिपूर्वक क्रियान्वित करें. वह सम्यक् आचार नहीं, मिथ्याचार है । ३
पंचविध आचार के नाम पर अनाचार में पुरुषार्थ : कैसे-कैसे ?.
अथवा ज्ञानाचार के लिए शास्त्रों को घोंट ले, किन्तु उनके अर्थ, रहस्य या तत्त्व का कुछ भी ज्ञान - भान न हो, केवल 'बाबावाक्यं प्रमाणम्' के अनुसार शास्त्रों को समझ ले, शास्त्रों में विहित सम्यग्ज्ञान का मन-वचन-काया की प्रत्येक प्रवृत्ति में उपयोग न रखे, शास्त्रज्ञ होने का श्रुतमद हो, तो वह ज्ञानाचार ज्ञानानाचाररूप में भी परिणत हो सकता है। इसी प्रकार दर्शनाचार के लिए केवल पंथवादी सम्यक्त्व प्राप्त करके तथाकथित गुरु से देव, गुरु, धर्म, शास्त्र के प्रति श्रद्धा रखने और उनके सिवाय जितने भी विविध नाम के वीतरागी अर्हन्त या सिद्ध (मुक्त) हों, उनके प्रति अथवा उनकी स्व-सम्प्रदायकल्पित रूपकल्पना, वेषकल्पना या चर्याकल्पना के सिवाय इतर सम्प्रदायकल्पित रूप-वेष - चर्या चरित्र - कल्पना को मिथ्या कहकर उनके प्रति घृणा, द्वेष, विरोध करे; श्रद्धेय गुरु भी अपने सम्प्रदाय
१. (क) णामं ठवणायारो, दव्वायारो य भावमायारो ।
एसो खलु आयारे, णिक्खेवो चउव्विहो होई ॥५ ॥
(ख) नाणे दंसण-चरणे, तवे य वीरिये य भावमायारो ॥७॥ - निशीथसूत्र चूर्णि, गा. ५, ७ २. मोक्ष - साध्य की साधना में यहाँ सक्रिय भाव - आचार ही अभीष्ट, विवक्षित और उपादेय है, नाम- आचार, स्थापना - आचार या द्रव्य - आचार को यहाँ स्थान नहीं है।
-सं.
३. देखें- 'भगवद्गीता' में मिथ्याचार का लक्षण
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org