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________________ ॐ मोक्ष-सिद्धि के साधन : पंचविध आचार * ३३३ ॐ आचाररूपी यंत्र को चलाते समय उपयोगशून्य 'उत्तराध्ययनसूत्र' में भगवान महावीर ने अपनी अन्तिम देशना में बताया है"ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और (इनके आचरण में) उपयोग; ये जीव के लक्षण हैं।'' आशय यह है कि मुमुक्षु एवं आत्मार्थी साधक को जो आचाररूपी मशीन ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य; इन पाँच बड़े पुों के साथ मिली है, उसे वह चलाए नहीं, यदि चलाए तो भी दो या तीन पूों को ही चलाए अथवा इन पाँचों को चलाने से पहले इनकी भलीभाँति देखभाल या जाँच-पड़ताल न करे, आचाररूपी मशीन को चलाते समय उपयोग न रखे कि कहीं ज्ञान के पुर्जे के साथ अज्ञान का कीट तो नहीं लगा है, दर्शन के पुर्जे पर मिथ्यात्व की कालिमा तो नहीं छा गई है ? या चारित्र के पुर्जे के साथ कषाय का कालुष्य तो नहीं मिल गया है ? अथवा तप के पुर्जे पर लौकिक, भौतिक या सांसारिक इच्छाओं और वासनाओं की मलिन रज तो नहीं लिपट गई है और वीर्य के पूर्जे में कहीं शंका-कांक्षा-विचिकित्सा का तार तो नहीं फँस गया है ? यदि ऐसी स्थिति है और आचार-यंत्र का आत्मारूपी चालक जागरूक, सतर्क और सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्षलक्ष्य के प्रति सचेष्ट नहीं है तो न तो वह संवर, निर्जरा और मोक्ष की दिशा में पुरुषार्थ कर पायेगा और न ही वर्तमान में अधिकांश रूप में आत्मा के सुषुप्त, कुण्ठित और आवृत ज्ञान, दर्शन आत्मिक-सुख (आनन्द) और शक्तिरूप निजी गुणों को जाग्रत, अनावृत और प्रखर कर सकेगा। आचाररूपी यंत्र संचालित, सक्रिय और आचरित नहीं होगा और उसके पूर्वोक्त पाँचों पुर्जे या पाँचों में से कोई भी पुर्जा ठप्प रहेगा, स्व-स्वरूप में परिणमन नहीं करेगा तो निश्चयदृष्टि से जीव (आत्मा) की स्व-स्वरूप में पूर्णतया अवस्थिति नहीं हो सकेगी। ये पाँच आचार केवल नाम, स्थापना, द्रव्यरूप में रहें तो भी मोक्षलक्ष्य की सिद्धि सम्भव नहीं आशय यह है कि ज्ञान-दर्शन-सुख-शक्तिरूप आत्म-गुणों के प्रतीकरूप ये ज्ञानादि पाँच भावरूप आचार केवल नामरूप में ही जीवन में या मन-मस्तिष्क में रहें या केवल स्थापनारूप में ही शास्त्रों, ग्रन्थों या कागजों पर लिखे रहें अथवा भविष्य में इनका आचारण किये जाने का मनसूबा बाँधा जाये, जिज्ञासु या मुमुक्षु जनता के समक्ष इन पाँचों पर लम्बी-चौड़ी आकर्षक शब्दों में व्याख्या कर दी जाये, इन्हें जीवन में तत्काल क्रियान्वित करने का कोई विचार न किया जाये, तो १. (क) नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य, एयं जीवस्स लक्खणं॥११॥ (ख) नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा।। एस (मोक्ख) मग्गुत्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं॥२॥ -उत्तरा., अ. २८/११, २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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