________________
ॐ १२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
था। पंखा चला दिया, कूलर भी चला दिया। आराम करने के लिए डनलप का मुलायम गद्दा बिछा दिया, तकिये लगा दिये। भोजन और पेय की उत्तम सामग्री भी उसके सामने टेबल पर प्रस्तुत कर दी। रेडियो का स्विच ऑन कर सुन्दर गायन भी प्रस्तुत कर दिया। और भी सुख-सुविधा और प्रसन्नता की जितनी सामग्री जुटानी चाहिए, जुटा दी। फिर भी मालिक की उदासी और बेचैनी नहीं मिटी। वाह्य सुख-सुविधा की उत्तमोत्तम सामग्री उसके सामने पड़ी है, फिर भी वह क्यों इतना दुःखी और बेचैन है ? कारण स्पष्ट है-उसने सुख के वास्तविक कारण समताभाव को, ज्ञाता-द्रष्टाभाव को नहीं अपनाया। वह धन के संयोग को सुख का और धन के वियोग को दुःख का कारण समझ रहा था। इसलिए नौकरों द्वारा सुख-सुविधा' की सामग्री जुटा देने पर भी वह सुखी नहीं हो सका। इसलिए यह सिद्धान्त यथार्थ है कि दूसरा सुख-सुविधा की सामग्री जुटा सकता है, सुख का वातावरण, संयोग
और परिस्थिति उत्पन्न कर सकता है, किन्तु किसी को सुखी नहीं बना सकता। स्थूलदृष्टि वाले लोग शरीरलक्षी, समतादृष्टि वाले आत्मलक्षी
स्थूलदृष्टि वाले लोग शरीरलक्षी दृष्टिकोण से सोचते हैं-शरीर को मनोऽनुकूल सुख मिला या सुख दिया तो सुखी और शरीर के या मन के प्रतिकूल हुआ या किसी ने किया तो दुःखी मानते हैं, परन्तु समता, वीतरागता एवं कर्ममुक्ति के साधक का दृष्टिकोण आत्मलक्षी होता है। आत्मा के वर्तमान और अतीत के कर्तृत्व और भोक्तृत्व के कारण होने वाले सुख-दुःख के बाह्य कारणों के उपस्थित होने पर वह किसी पर-पदार्थ या किसी दूसरे जीव को सुख-दुःख का कारण नहीं मानता। इसी कारण वह सुख-दुःख के प्रसंगों में समभावी रहकर निर्जरा कर लेता है। सुख-दुःख में समभावी साधक द्वारा कर्ममुक्ति का संगीत
सुख और दुःख में समभावी मानव शीघ्रता से कर्मनिर्जरा कर लेता है। उसके जीवन का मधुर और प्रेरक संगीत इस प्रकार है
सुख-दुःख एक समान मनवा, सुख-दुःख एक समान। ज्ञान तराजू में रख तोलो, मिटे सभी अज्ञान ॥ मनवा.॥ ध्रुव ॥ इक आवे, दूजा पुनि जावे, सूरज-चन्द्र समान। भाग्य-गगन के हैं दो तारे, अजब निराली शान॥ मनवा.॥१॥ जो जग में दुःख ही नहीं होता, सुख की क्या पहचान। बिछुड़-मिलन का है यह जोड़ा, धूप-छांह-सम जान॥ मनवा.॥२॥ पतझड़ की हरियाली है यह, ऋतु-तब्दील-समान। खेल रहा है खेल खिलाडी, जीव करे अभिमान॥ मनवा.॥३॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org