SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्जरा का मुख्य कारण : सुख-दुःख में समभाव आई। आवेश की आग उसके तन-मन में भड़क उठी। उसने सोचा- " अभी इसे अत्यन्त दुःखित करके मार डालूँ।” निकटवर्ती एक तालाब की पाल पर गया । वहाँ से गीली मिट्टी लाकर पहले गजसुकुमाल मुनि के मस्तक पर चारों ओर पाल बाँध दी। । तत्पश्चात् श्मशान में जल रही चिता की आग से मिट्टी के एक खप्पर में जलते अंगारे भरकर ले आया और मुनि के मस्तक पर वे अंगारे उड़ेल दिये। कितनी तीव्र वेदना हुई होगी, उस महामुनि को ? बाहर से देखने वाले यही कहेंगे या सोचेंगे - "सोमिल ने गजसुकुमाल मुनि को कितना दुःखी कर दिया ? अहो ! कितना घोर दुःख हो रहा है मुनि को ?” परन्तु ज्ञाता - द्रष्टा, समभावी और भेदविज्ञान निपुण मुनि इसे दुःख नहीं समझते, न ही वे दुःख के साधन जुटाने वाले सोमिल को दुःखदाता मानते हैं, न ही उस पर किसी प्रकार का रोष या द्वेष करते हैं। वे अपने आत्म-भाव में, ज्ञानघन आत्मा के परम ज्ञान में, आत्मानन्द में लीन हो रहे हैं । फलतः उन्हें केवलदर्शन - केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई, मोहकर्म और अन्तरायकर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से कर्ममुक्ति का अव्याबाध, शाश्वत और अनन्त आत्म-सुख (आनन्द) उनमें प्रगट हो गया। वे सदा-सर्वदा के लिए जन्म-मरणादि दुःखों से मुक्त हो गए । अनन्त सुख में डूब गए । ' ११ स्थूलदृष्टि से तथा प्रतिशोधदृष्टि से देखने वालों की मिथ्या भ्रान्ति दुःख के इतने निमित्त जुटाने पर भी सोमिल ब्राह्मण समतायोगी गजसुकुमाल मुनि को दुःखित नहीं कर सका । परन्तु स्थूलदृष्टि से देखने वाले व्यक्ति सोचते हैंबेचारा कितना दुःखी है और दुःख देने के निमित्त जुटाने वाला व्यक्ति सोचता हैमैंने इसे अत्यन्त दुःखी करके अपने वैर का बदला ले लिया। क्या 'सुख-दुःखदाता कोई न आन, मोह-राग ही दुःख की खान', इस सिद्धान्तसूत्र के साथ उपर्युक्त भ्रान्तिपूर्ण दृष्टि वालों के चिन्तन की कहीं संगति है ? कहना चाहिए कि इसी विसंगतियुक्तं या विषमतावर्द्धक राग-द्वेष-कषायादि विभावों से लिप्त विचारों के कारण व्यक्ति स्वयं दुःखी या सुखी (सुखाभासी) समझता है। Jain Education International $3 सुख के साधन जुटा देने पर भी दूसरे व्यक्ति उसे सुखी न बना सके सुख के सन्दर्भ में भी इसी सिद्धान्तसूत्र की कसौटी पर यही तथ्य यथार्थ उतरता है कि कोई पर-पदार्थ या व्यक्ति किसी को सुखी नहीं बना सकता। इसे एक दृष्टान्त द्वारा समझ लें - एक व्यक्ति के व्यापार में अचानक इतना घाटा लग गया । इसी चिन्ता में वह बहुत दुःखी था, उदास और बेचैन था । उसके यहाँ रहने वाले नौकर उस व्यक्ति की उदासी और खिन्नता का कारण समझ नहीं पाए। वे अपने मालिक के लिए प्रत्येक सुख-सुविधा के साधन प्रस्तुत करने लगे। गर्मी का मौसम १. देखें - अन्तकृद्दशांगसूत्र में गजसुकुमाल मुनि का प्रकरण For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy