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* १४४ ® कर्मविज्ञान : भाग ८ *
है और न ही मुक्त होता है। बन्धन और मुक्ति प्रकृति से सम्बन्धित है। जबकि जैनदर्शन बन्धन और मुक्ति को आत्मा से सम्बद्ध मानता है। अतः बन्धन और मोक्ष आत्मा का नहीं, प्रकृति का होता है। इसलिए ‘सांख्यदर्शन' मानता है-शुद्ध चैतन्यस्वरूप में आत्मा का अवस्थान होना मोक्ष है। किन्तु यह जैनदर्शन-मान्य मोक्षस्वरूप से विरुद्ध है। जैनदृष्टि से आत्मा सदा से शुद्ध व मुक्त नहीं है। संसारस्थ आत्मा कर्ममल से लिप्त है। उन अन्तर्मलों का क्षय स्वपुरुषार्थ (सम्यग्ज्ञानादि में पुरुषार्थ) होने पर ही मोक्ष प्राप्त होगा। दूसरी बात-सिर्फ चैतन्य ही आत्मा का स्वरूप नहीं है। (शुद्ध) आत्मा अनन्त ज्ञानादि-स्वरूप है। यदि पुरुष (आत्मा) को ज्ञानादि-स्वरूप न माना जाए तो वह सर्वज्ञ-र्वदर्शी नहीं हो सकेगा। और सर्वज्ञ (केवली) हुए बिना मोक्ष सम्भव ही नहीं है।' इस दृष्टि से जैनदर्शन-सम्मत मोक्ष है-चैतन्य-विशेष में (स्वकीय पुरुषार्थ से अन्तर्मल का क्षय होने से) अनन्त ज्ञानादि का अवस्थित होना। 'न्यायकुमुदचन्द्र' के शब्दों में-(आत्मा के) अनन्त चतुष्टयस्वरूप का लाभ-लक्षण (उपलब्धि-लक्षण) वाला मोक्ष प्रसिद्ध है।
इसके अतिरिक्त ‘सांख्यदर्शन' यह भी मानता है कि मोक्ष में आत्मा (पुरुष) में सुख, दुःख और ज्ञानादि नहीं रहते, क्योंकि सुख-दुःख आदि प्रकृति के कार्य हैं, पुरुष के नहीं। चूँकि मोक्ष में प्रकृति पुरुष से अलग हो जाती है, इसलिए सुखादि का भी विनाश हो जाता है, परन्तु जैनदर्शन मोक्ष में सांसारिक वैषयिक सुख-दुःख का तो उच्छेद मानता है, किन्तु आत्मा के स्वाभाविक अव्याबाध सुख (आनन्द) का उच्छेद नहीं मानता, न ही अनन्त ज्ञानादि का उच्छेद मानता है। मोक्ष में अतीन्द्रिय आत्मिक और अव्याबाध सुख का उच्छेद नहीं
इस विषय में सभी भारतीय आस्तिक दर्शन एकमत हैं कि मोक्ष में समस्त दुःखों का अत्यन्त उच्छेद हो जाता है, किन्तु न्याय, वैशेषिक, प्रभाकर, सांख्य तथा बौद्ध दार्शनिक यह भी मानते हैं कि मोक्ष में दुःख की तरह सुख का भी अत्यन्त उच्छेद हो जाता है। परन्तु जैनदर्शन मोक्ष में आत्मिक अतीन्द्रिय अव्याबाध सुख का उच्छेद होना कथमपि नहीं मानता; क्योंकि आत्मा का वह स्वभाव है, निज गुण है, वह स्वयं सुखरूप है। जैनदर्शन का कहना है-सुख दो प्रकार का है-इन्द्रियज और आत्मज; अथवा वैभाविक (आगन्तुक) और स्वाभाविक। इन्द्रियजन्य सुख का मोक्षावस्था में विनाश (अभाव) हो जाता है; क्योंकि मोक्षावस्था में इन्द्रिय, शरीर
आदि का अभाव हो जाता है। अतः मोक्षावस्था में इन्द्रियजन्य सुख नहीं होता, परन्तु मोक्ष में आत्मिक-सुख का अभाव मानना ठीक नहीं; क्योंकि आत्मा स्वयं १. . प्रमेय कमलमार्तण्ड, प. २, पृ. ३२७ २. (क) तस्मान्न बध्यतेऽसौ, न मुच्यते, नाऽपि संसरति कश्चित्। संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः॥
-सांख्यकारिका ६२ (ख) अनन्त-चतुष्टय-स्वरूप-लाभ-लक्षण-मोक्ष-प्रसिद्धः। -न्यायकुमुदचन्द्र ७६
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