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* मोक्ष: क्यों, क्या, कैसे, कब और कहाँ ? १४३
इन चारों गुणों (चारों सम्पदाओं) का पूर्ण रूप से, निराबाध रूप से विकसित हो जाना निर्वाण है। '
निर्वाण के सिद्धि-स्वरूप की व्याख्या
निर्वाण का एक स्वरूप है-सिद्धि । साधना की पूर्णाहुति हो जाना सिद्धि है । आत्मा के अनन्त गुणों का पूर्ण रूप से विकसित हो जाना सिद्धत्व या सिद्धि है; यही मोक्ष है। सिद्धि शब्द अनात्मवादी बौद्धदर्शन की मुक्ति का निराकरण करता है और जो अपूर्ण दशा में ही मोक्ष (निर्वाण ) का होना स्वीकार करता है। उन दार्शनिकों की मुक्ति का भी परिहार करता है। तथाकथित ईश्वर या अन्य किसी महाशक्ति के द्वारा अपूर्ण व्यक्तियों को मोक्ष देने की कथाएँ वैदिक पुराणों में बाहुल्येन वर्णित हैं, परन्तु जैनदर्शन इन बातों पर विश्वास नहीं करता। वह अपूर्ण अवस्था (छद्मस्थ अवस्था) को संसार ही कहता है; मोक्ष नहीं । जब तक ज्ञान अनन्त न हो, दर्शन अनन्त न हो, चारित्र अनन्त न हो, वीर्य (शक्ति) अनन्त न हो, सुख अनन्तं न हो, सत्य अनन्त न हो, तब तक जैनदर्शन मोक्ष होना स्वीकार नहीं करता। अनन्त आत्म- गुणों के विकास की पूर्ति अनन्तता में है, पहले नहीं । और यह पूर्णता अपनी ही साधना के द्वारा प्राप्त होती है, किसी की कृपा से नहीं । २
निर्वाण का पारिपार्श्विक वातावरण
जहाँ निर्वाण है, वहाँ लोक के अग्र भाग में क्षेम कुशल है, वह व्याधि, प्रदूषण आदि से रहित है। वह शिव है - यानी जरा, मृत्यु तथा अन्य उपद्रवों से रहित है। अनाबाध है-यांनी शत्रुजनों का अभाव होने से स्वभावतः पीड़ारहित है तथा वह · स्थान भी दुरारूह = दुष्प्राप्य है । जहाँ जटा, मृत्यु, व्याधि और वेदना बिलकुल नहीं है। वह स्थान शाश्वत है। अबाध है, यानी भयादि बाधाओं से बिलकुल रहित है ।
भारत के सभी आस्तिक दर्शन प्रायः इस तथ्य से सहमत हैं कि (शुद्ध) आत्म-स्वरूप के लाभ का नाम मोक्ष है। किन्तु मोक्ष के स्वरूप में मतभेद है।
सांख्यदर्शन-मान्य मोक्ष का स्वरूप यथार्थ क्यों नहीं
‘सांख्यदर्शन' के अनुसार-पुरुष (आत्मा) स्वरूपतः मुक्त है, शुद्ध है । बन्धन और मुक्ति दोनों अवास्तविक हैं। अर्थात् पुरुष न तो बन्धन में आता (कर्म करता )
१. 'जैनधर्म : अर्हत् और अर्हताएँ' से भाव ग्रहण, पृ. ६८-६९
२. 'श्रमणसूत्र' (उपाध्याय अमर मुनि ) में 'सिज्झंति' पद की व्याख्या, पृ. ३२८
३. उत्तराध्ययनसूत्र अ. २३, गा. ८३-८४ की व्याख्या ( आ. प्र. समिति, ब्यावर ) से भाव ग्रहण
४. (क) मोक्षः स्वात्मोपलब्धिः ।
(ख) आत्मलाभं विदुर्मोक्षम् ।
(गं) कर्मक्षयेण जीवस्य स्वरूपस्थितिः शिवम् | (घ) स्वात्मन्यवस्थानं मोक्षः ।
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- आत्ममीमांसा, वसु-वृत्ति ४०
- सिद्धि विनिश्चय ७/१९
- षड्दर्शन समुच्चय, राज. १६ - तैत्तिरीय उपनिषद्, भा. १/११
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