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ॐ १०२ ® कर्मविज्ञान : भाग ८ 8
वृत्तिसंक्षय : मनोविज्ञान की दृष्टि से ___ मनोविज्ञानशास्त्र भी वृत्तियों के अनिष्ट प्रभावों का अनेकविध वृत्तियों का मानसिक, शारीरिक एवं आध्यात्मिक आधि-व्याधि-उपाधियों के रूप में निर्देश करता है। प्रत्येक सांसारिक प्राणी में स्थूल, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म इन तीनों प्रकार के शरीरों द्वारा मानसिक आवेगों के रूप में तथा शारीरिक चेष्टाओं के रूप में. वृत्तियों का उभार होता रहता है। आत्मा के साथ सूक्ष्म और सूक्ष्मतम शरीर के संयोग की अनुभूति आवेगों के माध्यम से स्थूल शरीर और मन के माध्यम से विविध शुभ-अशुभ वृत्तियों के रूप में होती रहती है। क्रोधादि कषायों तथा हास्य, भय, शोक, रति-अरति, राग, द्वेष, मोह, कामवासना, घृणा, आसक्ति आदि के आवेगों के रूप में वृत्तियों का प्रवाह चलता रहता है। अध्यात्म, भावना, ध्यान और समता, इन चार योगों के माध्यम से वृत्तियों का उपशमन, क्षमोपशमन, अंशतः क्षय तथा रूपान्तर किया जा सकता है, पूर्णतया क्षय नहीं। इसके लिए ग्रन्थि-भेद जप, तप, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग, व्युत्सर्ग, प्रायश्चित्त, विनय, क्षमापना, वैयावृत्य आदि की साधना से किया जाना आवश्यक है। वृत्तिसंक्षय वृत्तियों को निर्मूल करने के लिए अमोघयोग है। आगमों में यत्र-तत्र कई प्रक्रियाएँ बताई हैं, उनको अपनाकर समस्त वृत्तियों का सर्वथा क्षय करके ही सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
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