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________________ ॐ ८६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ या आत्म-स्वरूप में स्थित होने के लिए देह-भक्ति सर्वथा छोड़कर सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष न मिले, तब तक धर्म-शुक्लध्यान में संलग्न रहे। धर्म-शुक्लध्यानों द्वारा आत्मा को मोक्ष से जोड़ने का पुरुषार्थ करता रहे!' __शीलांकाचार्य ने ध्यानयोग का लक्षण किया है-“चित्तनिरोध लक्षण, धर्मध्यानादि में मन-वचन-काय का योग (व्यापार) ध्यानयोग है।"२ ध्यानयोग का अभ्यासी सिद्धियों और लब्धियों के चक्कर में नहीं पड़े __वस्तुतः ध्यान जिस विषय में केन्द्रित होता है. उस विषय में आत्म-शक्ति तीव्र हो जाती है। नानाविध अनुभूतियाँ प्रतिभासित होती हैं। अनेक लब्धियाँ और सिद्धियाँ उपलब्ध होती हैं। मनःस्थिति में परिवर्तन प्रतीत होता है। ऐसे समय ध्यानयोग के अभ्यासी साधक को बहुत ही सावधानी से प्रगति करनी चाहिए। सिद्धियों और लब्धियों के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए तथा उपलब्धियों के अहंकार से दूर रहना चाहिए। छद्मस्थ और केवली के ध्यान का कालमान छद्मस्थ साधक के मन की एकाग्रता यानी विकल्परहित अवस्था अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक बनी रहती है, यह काल-मर्यादा छद्मस्थ की अपेक्षा से विवक्षित है, सर्वज्ञ की अपेक्षा से नहीं। सर्वज्ञ में ध्यान का कालमान अधिक भी हो सकता है। ‘गुणस्थान क्रमारोह' में बताया गया है कि "मन की स्थिरता छद्मस्थ का और काया की स्थिरता केवली का ध्यान होता है।"३ . ध्यानयोग की साधना का सुफल वस्तुतः ध्यानयोग की साधना से ध्येय में एकाग्रता इतनी अधिक बढ़ जाती है कि साधक के मन में ध्येय के अतिरिक्त अन्य विषय का आंशिक विचार भी उद्भूत नहीं होता। 'दशवैकालिकसूत्र' में कहा गया है-जो षट्काय का त्राता अथवा आत्म-त्राता अपापभाव (सावद्यभाव से रहित) में स्थित है और बाह्याभ्यन्तर तप में रत है, उस स्वाध्याय और सुध्यानरत साधक की आत्मा में ध्यानाग्नि प्रज्वलित हो १. झाणजोगं समाहटु, कायं विउसेज्ज सव्वसो। तितिक्खं परमं णच्चा आमोक्खाए परिवएज्जासि॥ -सूत्रकृतांग १/८/२६ देखें-इसकी व्याख्या के लिए सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या सहित, श्रु. १, अ. ८, गा. २६, पृ. ७४४-७४५ २. ध्यानं चित्तनिरोधलक्षणं धर्मध्यानादिकं तत्र योगो विशिष्ट मनो-वाकू-काय-व्यापारस्तं ध्यानयोगम्। -वही ८/२६ ३. 'गुणस्थान क्रमारोह' (रलशेखरसूरि) से भावांश ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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