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________________ * मोक्ष से जोड़ने वाले : पंचविध योग * ८५ 8 ध्यानयोग की साधना क्यों करें ? चूँकि मन चंचल है, उसकी चंचलता और व्यग्रता को कैसे समाप्त करें? वह तो अनेक विषय-विकारों में बहता रहता है, उसका नियंत्रण आसानी से नहीं होता। मानसिक स्पन्दनों की तरंगें विविधरूपों में तरंगित होकर अध्यवसाय तक पहुँचती हैं, फिर वे सघन बनकर संस्कार के रूप में परिणत हो जाती हैं। संस्कार का सघनरूप क्रिया या प्रवृत्ति है, जो मानसिक चंचलता को समाप्त नहीं होने देती। ऐसी स्थिति में शुद्ध भाव, शुद्ध लेश्या, शुद्ध अध्यवसाय, शुद्ध योग कैसे हो सकते हैं और वे भी स्थिर कैसे रह सकते हैं ? इसी समस्या को ध्यान में रखकर आचार्यों ने ध्यानयोग की साधना का निर्देश किया है और प्राथमिक एवं छद्मस्थ-साधकों के लिए अन्तर्मुहूर्त तक निर्धारित विषय या ध्येय में चित्त की एकाग्रता और स्थिरता के लिए भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता, इन तीनों का अभ्यास बताया है।' ध्यानयोग की साधना में मोक्ष-प्राप्ति तक डटा रहे _ 'सूत्रकृतांगसूत्र' में ध्यानयोग की साधना को सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त होने तक के लिए प्रेरणा देते हुए कहा गया है-“मुमुक्षु साधक ध्यानयोग को सम्यक् प्रकार से ग्रहण करके (अपनाकर) समस्त बुरी प्रवृत्तियों से अपने तन-मन-वचन को रोक दे, पूर्ण रूप से काया के प्रति ममत्व का व्युत्सर्ग (त्याग) करे। परीषहों और उपसर्गों से जनित कष्टों को समभावपूर्वक सहन करने (तितिक्षा) को उत्तम (परम) समझकर समस्त कर्मक्षयरूप मोक्ष के प्राप्त होने पर संयम-पालन में जुटा रहे।" ___ ध्यानयोग द्वारा आत्म-भक्ति में प्रवृत्ति करने का तात्पर्य इस गाथा का तात्पर्य यह है कि मुमुक्षु साधक के जीवन में आत्मा मुख्य होती है, देह गौण। अतः देह-भक्ति को छोड़कर मुमुक्षु आत्म-भक्ति अधिकाधिक कर सके, इसके लिए देह-भक्ति को केवल वचन और तन से ही नहीं; मन, बुद्धि, चित्त और हृदय से भी सर्वथा छोड़कर यों विचार करे कि मेरा शरीर है ही नहीं। इस • प्रकार देह के प्रति जो सूक्ष्म ममत्व हो, उसका भी त्याग करने हेतु काय-व्युत्सर्ग या कायोत्सर्ग करे। शरीर को किसी भी हालत में अकुशल = अनिष्ट विचार, वचन या चेष्टा में न लगा दे। कदाचित् पूर्व संस्कारवश मन, वचन या काय अनिष्ट प्रवृत्ति (योग) की ओर जाते हों तो उन्हें बलपूर्वक रोक दे। प्रश्न होता है-देह-भक्ति छोड़कर देह के अंगभूत मन-तन-वचन को किसमें लगाए? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं-ध्यानयोग को सम्यक अपनाए। अर्थात् अपनी आत्मा में या आत्म-स्वभाव १. (क) आवश्यकनियुक्ति, गा. १४५६ (आचार्य भद्रबाहु स्वामी) (ख) 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. १५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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