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ॐ ७६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ &
मल्लिनाथ भगवान को सर्वश्रेष्ठ पुण्यबन्ध के फलस्वरूप तीर्थंकरत्व तो प्राप्त हुआ, परन्तु माया नामक पापकर्म के कारण स्त्रीत्व प्राप्त हुआ। माया के कारण अशुभ घातिकर्म का बन्ध होता है, साथ ही माया कषाय अशुभ अघातिकर्मबन्ध का भी. कारण है। मल्लीकुमारी तीर्थंकर भी बनीं, मोक्ष भी पाया, परन्तु माया कषाय ने अपना फल चखाया ही। बहुधा स्त्रियाँ माया-कपट करने में चतुर
बहुधा स्त्रियाँ माया-कपट करने में बहुत चतुर होती हैं। चूलनी और सूरिकान्ता के उदाहरण प्रसिद्ध हैं। नास्तिक प्रदेशी राजा जब केशीश्रमण का सत्संग पाकर आस्तिक सम्यग्दृष्टि तथा व्रतधारी श्रावक बनकर धर्मध्यान में रत रहने लगा, तो उसकी रानी सूर्यकान्ता को यह अच्छा नहीं लगा। देह सुख-भोग-लालसा तृप्त न होते देख रानी ने प्रदेशी राजा को भोजन में जहर देकर मारने का षड्यंत्र रचा। राजा भोजन का कौर लेते ही समझ गया, परन्तु रानी पर क्रोध न करके अपने ही क्रूर कर्मों का फल समझ समभाव से सहकर उन्होंने प्राण त्याग दिये। रानी को विश्वास न हुआ, उसने राजा का गला मसोस दिया। सच है, मायाबी मनुष्य कौन-सा पाप नहीं कर बैठता? उसके लिए कुछ भी अशक्य नहीं है। परन्तु दूसरों को ठगने वाला स्वयं अपने आप को ठगता है। ' माया कषाय से आत्म-गुणों की कितनी हानि ?
माया से क्षणिक लाभ तो यह है कि इससे थोड़ी-सी स्वार्थसिद्धि हो जाती है, परन्तु नुकसान कितना है ? 'दशवैकालिकसूत्र' में कहा गया है-“माया मित्ताणि नासेइ।"-माया मित्रता को नष्ट कर देती है। एक बार मन फटने पर दुबारा जुड़ना बहुत ही कठिन होता है। माया परस्पर अविश्वास, अश्रद्धा और निन्दाकाण्ड को उत्पन्न कर देती है। दम्भ माया का गूढ़ रूप है। एक विचारक ने कहा-“दम्भ (कर्म) मुक्तिरूपी लता को जलाने में आग का काम करता है। फिर माया का सेवन करने वाला मोक्ष (सर्वकर्मक्षयरूप मुक्ति) से हजारों योजन दूर रह जाता है। शुभ धर्मक्रिया-विधि में माया राहू की तरह बाधक है। दम्भ दुर्भाग्य का सबसे बड़ा कारण है। वह अध्यात्म सुखानुभूति में अर्गला के समान बाधक है।" अध्यात्म-साधना में जरा-सी भी माया नौका में छोटे-से छिद्र की तरह साधक को डुबा देती है। मायाबी पुरुष बाहर से बगुले के समान ध्यानयोगी दिखते हुए भी १. (क) देखें-ज्ञाताधर्मकथा में मल्लिनाथ भगवती का वृत्तान्त, श्रु. १, अ. ८
(ख) रायप्पसेणी सुत्तं से। (ग) मुढमं वंचयमाना बंचयन्ते स्वयमेव हि।
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