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* अकषाय-संवर : एक सम्प्रेरक चिन्तन 8 ५५ 83
इन्हें पाकर एक या दूसरे प्रकार से अभिमान, क्रोध, लोभ, कपट, द्वेष, ईर्ष्या आदि कषायों का पोषण करता रहता है। यह एक तरह से पुण्य बेचकर कषायों का सौदा करने जैसा है। जैसे-किसी व्यक्ति को सम्पत्ति मिली। सम्पत्ति, जमीन-जायदाद आदि मिलने पर वह अभिमान करता है, चली जाने पर विषाद (शोक) करता है, सम्पत्ति की रक्षा के लिए रात-दिन चिन्ता या भय कस्ता है, दूसरे से खुद को सम्पत्ति कम मिली तो उद्विग्नता-दीनता करता है, धन को ममत्वपूर्वक संग्रह करने की वृत्ति है, लोभवृद्धि करता है, सम्पत्ति को अपने ही मौज-शौक करने या विषयभोगों के सेवन में ही लगाने की स्वार्थवृत्ति या आसक्ति है। इस प्रकार पुण्य को बेचकर व्यक्ति कषायों को खरीदता है। ___ पास में पैसा है, सत्ता है, पद भी है, परन्तु अपने अधीनस्थ नौकर-चाकर, पत्नी, पुत्र आदि को बात-बात में दबाता, धमकाता, सताता और रौब जमाता है, दूसरों का तिरस्कार-अपमान करता है। ऐसा करके व्यक्ति अपने पुण्य को खर्च करके अभिमान, क्रोध, गाढ़ धन मूर्छारूपी कषाय खरीदता है।
पुण्यबल से अच्छा खानपान मिलता है, परन्तु उस पर राग, आसक्ति, रसगारव (अहंकार) आदि करता है कि हम तो ऐसा ही सरस-स्वादिष्ट खाते हैं, थर्ड क्लास नहीं, तो अभिमान को अपनाया। सुन्दर फ्लेट मिला, एयर कण्डीशन रूम मिले हैं, फर्नीचर से मकान सुसज्जित है, कार है, बंगला है, सभी प्रकार के सुख के साधन, सुविधा, अनुकूलता आदि भी पुण्यबल से मिले हैं।
पर मन में इन वस्तुओं का अभिमान है, दूसरों का तिरस्कार है, तो ऋद्धिगारव-सातागारव रूप मान और लोभकषाय खरीद लिये। .
पुण्ययोग से अच्छी जाति, कुल, बल, रूप, वैभव, लाभ, ऐश्वर्य आदि मिलने पर इन पर आसक्ति हो, अहंकार हो, दूसरों के प्रति तिरस्कारभाव हो, ईर्ष्या-द्वेष हो तो क्रोधादि कषायों को खरीद लिया, समझो। अकषाय-संवर के साधक को इन और ऐसे पुण्य प्राप्त साधनों को पाकर मुफ्त में कषायों का उपार्जन नहीं करना चाहिए। प्राप्त साधनों का उपयोग समभावपूर्वक करने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि इस प्रकार कषायों के संस्कार पुष्ट हो गये तो अशुभ कर्मबन्ध होकर भव-परम्परा ही बढ़ेगी, कुगति में भटकना पड़ेगा। अतः कषाय छोड़ो।
१. 'दिव्यदर्शन', दि. १५-९-९० के अंक से भाव ग्रहण, पृ. १८
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