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________________ 8 अकषाय-संवर : एक सम्प्रेरक चिन्तन 8 ५३ ॐ उन्नति तेरी आँखों में खटकती है और तु ईर्ष्या, द्वेष करके उसकी हानि, निन्दा या बदनामी करना चाहता है, उस समय यह चिन्तन कर कि दूसरा तेरे प्रति अमुक-अमुक दुर्व्यवहार करता है, उसमें अधिक तो दूसरे का ही बिगड़ा है, तेरी छवि जरा धुंधली पड़ी है, परन्तु उससे तेरी आत्मा का कोई नुकसान नहीं हुआ, फिर भी कषायमोहनीय कर्म के उदयवश तेरा बाह्यरूप दूसरे ने जरा-सा बिगाड़ा है, वह तेरे वश का नहीं, पूर्वकृत कर्माधीन है। यह बाहर का बिगाड़ तेरे काबू से बाहर है, जबकि क्रोध करना या न करना तथा अहंकार, छलकपट, स्वार्थसिद्धि, ठगी, ईर्ष्या, द्वेष, भय आदि करना या न करना तो तेरे वश की बात है। दूसरों के कारण तेरा बाहर का किंचित् बिगड़ा, उसमें तो तेरी विवशता है, परन्तु तू प्रतिक्रोध आदि कषाय करके स्वयं अपने हाथ से अपना बिगाड़ करता है, यह तेरी केतनी मूर्खता है। यह तो कषायों पर विजय पाने के बदले कषायों से पराजित मेना है। धवल सेठ ने श्रीपालकुमार के साथ कितना दुर्व्यवहार किया, परन्तु पीपाल ने उसके प्रति क्रोध, अहंकार, छलकपट या ईर्ष्या-द्वेष आदि करके अपने मन्तर को नहीं बिगाड़ा, बल्कि उसके साथ सद्व्यवहार ही किया। क्रोधादि करने से सामने वाले में असद्भाव, अप्रीति, सेवाभाव हानि होती है क्रोधादि कषाय करने से कदाचित् सामने वाला निर्बल हो तो दब जाय, वह क्रोधादि न करे, परन्तु उसके अन्तःकरण में क्रोधादि करने वाले के प्रति सद्भाव, विश्वास या श्रद्धा का भंग हो जाता है। अगर सामने वाला दबे नहीं और वह भी उफने-उछले और उसमें भी क्रोध-अहंकार आदि जाग्रत हो या बढ़े; इससे बाहर का एक बिगड़ा से बिगड़ा, क्रोध करके बाहर के दूसरे को भी बिगाड़ने का काम क्यों किया जाये? उससे फिर वैर-परम्परा बढ़ने और सामने वाले की क्रोधादि कषायकर्ता के प्रति असद्भाव बढ़ने तथा प्रेमभाव, सेवाभाव घटने की भी संभावना है। अतः क्रोधादि कषायों से अपनी और दूसरों की बाह्य हानि तो है ही, आन्तरिक हानि जबर्दस्त है, जोकि घोर अशुभ कर्मबन्धक है।२ क्षमादि की आराधना करके दुर्लभतम जिन-वचन-प्राप्ति को सफल करना चाहिए कषाय-विजय के लिए एक विचार यह भी किया जा सकता है-जिन-वचन या जिनाज्ञा है-समय आने पर क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, उपशमभाव, समताभाव में १. 'दिव्यदर्शन', दि. १५.९-९० के अंक से सार ग्रहण, पृ. २० २. वही, दि. २७-१०-९० के अंक से भाव ग्रहण, पृ. ५० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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