SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ अकषाय-संवर : एक सम्प्रेरक चिन्तन 8 ५१ * नहीं होता। ऐसे भाव जागे बिना ही कर्मदल की निर्जरा (क्षय) हो जाती है। आत्मा से कर्मदल पृथक् हो जाते हैं। प्रदेशोदय का चमत्कार जिन वीतराग महानुभावों के कषायों का सर्वथा क्षय हो जाता है, चार घात्यकर्म नष्ट हो जाते हैं, उनके भवोपग्राही चार अघात्यकर्म शेष रहते हैं। प्रदेशोदय जब होता है तो रसानुभव तो होता ही नहीं, दो या तीन समय में ही वे कर्मप्रदेश आत्मा से पृथक् हो जाते हैं। छद्मस्थों के लिए कषायों का क्षय आदि का उपाय परन्तु जो अभी छद्मस्थ हैं, उनके कंषाय-नोकषाय-मोहनीय कर्म जब तक सत्ता में पड़े रहते हैं, तब तक वे छद्मस्थ भी उन कषायों को शुभ अध्यवसायों से, उपशान्त, मन्द या निरुद्ध कर सकते हैं तथा शुद्ध अध्यवसायों से, आत्म-स्वरूप में स्थिरता व रमणता से उनका आंशिक क्षय (निर्जरा) कर सकते हैं। क्षमा, मार्दव, आर्जव एवं संतोष आदि की साधना से, समभावपूर्वक उपसर्गों, परीषहों, कष्टों, दुःखों आदि को सहन करके वे कषायों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। उद्वर्तन, संक्रमण, रूपान्तरण, उदात्तीकरण, अल्पीकरण या क्षयीकरण आदि की प्रक्रिया द्वारा कषायों का क्षय, क्षयोपशम, उपशम एवं अशुभ का शुभ में रूपान्तरण किया जा सकता है। विपाकोदय को रोकना कैसे हो ? सारांश यह है कि उदय में नहीं आये हुए कषायकर्म के विपाकोदय को रोकना ताकि वह प्रदेशोदय से उदय में आये, फिर भी उसके रस का अनुभव न हो। जैसे-एक ग्लास शर्बत के मीठे पानी में एक चम्मच चिरायते का पानी मिलाकर पीया जाता है तो उसमें चिरायते के कटु रस का अनुभव नहीं होता, केवल शर्बत के मधुर रस का ही अनुभव होता है, इसी प्रकार जब किसी प्रबल शुभ कर्म रस का अनुभव चालू होता है, तब उस उदय प्राप्त कषायकर्म रस का स्वतंत्र रूप से अनुभव नहीं होता, अर्थात् वह कषायकर्म प्रदेशोदय द्वारा बिना अशुभ रसानुभव के भोगा जाता है। कषायकर्मों के विपाकोदय को रोकना कषाय को जाग्रत होने से रोकना है .. इसे व्यावहारिक दृष्टान्त द्वारा समझिये। किसी ने किसी व्यक्ति को १. 'दिव्यदर्शन', दि. ८-९-९० तथा दि. १५-९-९० के अंक से भाव ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy