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________________ ४८ कर्मविज्ञान : भाग ७ बनकर तुरन्त सुना दूँ कि मैं कायर नहीं हूँ। इसके दो-चार थप्पड़ लगाकर सीधा कर दूँ । इसका ऐसा अयोग्य व्यवहार कैसे सहन किया जा सकता है ? ऐसे ही चुपचाप सह लेने से तो यह और उद्दण्ड बनेगा, मेरा बिगाड़ ही करता रहेगा । " ऐसी और इस प्रकार की क्रोधोत्तेजक विचारणा चलाने से तो क्रोध सफल ही होगा । इसी प्रकार के क्रोध भड़काने वाले बोल बोले जाएँ, इसके आगे बढ़कर भौंहें चढ़ाकर मुँह लाल करके उसे फटकारा जाये अथवा प्रकारान्तरं से उसकी निन्दा, चुगली करके दूसरों को उसके प्रति भड़काया जाये अथवा चाहे जिस प्रकार से उसका नुकसान कराया जाये इत्यादि सब प्रकार क्रोध को वाणी और व्यबहार से सफल करने के हैं । इस प्रकार क्रोध को मन-वचन-काया से ऐसी चालना देना, क्रोध को सफल करना है, जो भयंकर दुष्परिणाम का संवाहक होता है। क्रोध का तत्काल शमन करने के बजाय सफल करने का दुष्परिणाम चण्डकौशिक सर्प बनने वाले साधु को अपने पैर के नीचे मेंढक के दब जाने या कुचल जाने के सम्बन्ध में प्रायश्चित्त के लिए सावधान करने वाले शिष्य पर मन ही मन क्रोध का उत्ताप बढ़ा, वचन से क्रोध भड़काने वाले वचन निकले और साथ ही साथ काया से शिष्य पर प्रहार करने की असफल चेष्टा भी हुई, इस प्रकार उन्होंने क्रोध का तुरन्त शमन करने की कोई गुंजाइश ही न रखी। इसके भयंकर दुष्परिणामवश उन्हें सर्प की योनि मिली। यह सब हुआ, मन में उठे हुए क्रोध को पूर्णतया सफल करने का भयंकर कृत्य । ' सामान्य क्रोध भी विचारणा की खुराक देने से प्रबलतर हो जाता है निष्कर्ष यह है कि अन्तर में उठे हुए सामान्य क्रोध को तद्योग्य विचारणा की खुराक देने से क्रोध अधिकाधिक प्रबल और तीव्र होता है। उसमें फिर वाणी और चेष्टा मिल जाये, तो कहना ही क्या ? क्रोध इस प्रकार पूर्ण सफल हो जाता है। फिर उस पर ब्रेक लगाना सम्भव नहीं होता। क्रोध की ऐसी सफलता में व्यक्ति यह नहीं देखता - सोचता है कि इसका स्थान या पद कौन-सा है, मेरा स्थान या पद कौन - सा ? जिसके प्रति क्रोध तीव्ररूप से उभरता है, वह भले ही पिता हो, माता हो, गुरु हो और कोई पूज्य - स्थानीय हो, उसके खिलाफ अनिच्छनीय बर्ताव करते हुए वह जरा भी नहीं हिचकता । यहाँ तक कि जिस पर वह क्रोध करता है, उसे मार डालने तक के विचार तक पहुँच जाता है। १. 'दिव्यदर्शन', दि. ८-९-९० के अंक से भाव ग्रहण, पृ. ११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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