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________________ * शीघ्र मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय : अविपाक निर्जरा ४७९ मोक्ष की कारणभूत निर्जरा कौन-सी और कौन-सी नहीं ? एक बात निश्चित समझ लेनी चाहिए - मोक्ष की कारणभूत निर्जरा वही हो सकती है, जो सम्यग्दृष्टि व्यक्ति की संवरपूर्वक निर्जरा हो। उसी को सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष की कारण माननी चाहिए। इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीवों के जो निर्जरा होती है, वह सविपाक हो या अविपाक, मोक्ष का कारण नहीं मानना चाहिए। क्योंकि मिथ्यादृष्टि अज्ञानी के जो निर्जरा होती है, वह तो गजस्नान को तरह निष्फल है। क्योंकि अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव थोथे से कर्मों की निर्जरा करता है, किन्तु बहुत-से नये कर्मों को बाँध लेता है। इस कारण यहाँ मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीवों की निर्जरा सविपाक हो या अविपाक, दोनों ही मोक्ष-प्राप्ति की कारण न होने से ग्राह्य नहीं है। 'द्रव्यसंग्रह टीका' में बताया गया है कि जो सविपाक निर्जरा है, वह नरकादि गतियों में मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीवों के भी होती हुई देखी जाती है । (सम्यग्दृष्टि ज्ञान जीवों में भी) जो सराग सम्यग्दृष्टियों की निर्जरा है, वह यद्यपि अशुभ कर्मों को नष्ट करती है, नियमतः शुभ कर्मों का नाश नहीं करती, तथापि वह संसार की स्थिति को कम करती है और उसी भव में तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्यबन्ध का कारण भी कदाचित् हो सकती है। इसलिए सराग सम्यग्दृष्टि की ऐसी सविपाक निर्जरा परम्परा से मोक्ष का कारण है। जबकि वीतराग सम्यग्दृष्टि के पुण्य तथा पाप दोनों का नाश होने पर उसी भव में वह अविपाक निर्जरा मोक्ष का कारण हो जाती है। ' इस पर से यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्यग्दृष्टि की संवरपूर्वक जो निर्जरा है, वही मोक्ष की कारण हो सकती है, मिथ्यादृष्टि की भले ही दीर्घ बाह्यतप से युक्त अविपाक निर्जरा हो अथवा प्रतिक्षण होने वाली सविपाक, वह परम्परा से या अनन्तररूप से मोक्ष की कारण नहीं हो सकती। १. (क) जेण हवे संवरणं, तेण तु णिज्जरणं जाणे । - बारस अणुवेक्खा - जिन परिणामों से संवर होता है, उन्हीं परिणामों से निर्जरा होती है। सम्यग्दृष्टि की संवपूर्वक निर्जरा ही मोक्ष की कारण है। (ख) अत्राहशिष्यः - सविपाकनिर्जरा नरकादिष्वज्ञानिनामपि दृश्यते, संज्ञानिनामेवेति नियमो नास्ति । तत्रोत्तरम् - अत्रैव मोक्षकारणं या संवरपूर्विका निर्जरा सैव ग्राह्या । या पुनरज्ञानिनां निर्जरा. सा गजस्नानवन्निष्फला । यतः स्तोकं कर्म निर्जरयति, बहुतरं बध्नाति, तेन कारणेन सा न ग्राह्या । या तु सराग-सदृष्टानां निर्जरा, सा शुभकर्मविनाशं करोति, तथापि संसार-स्थितिस्तोकं कुरुते । तद्भवे तीर्थंकरप्रकृत्यादि-विशिष्ट- पुण्यबन्धकारणं भवति । पारम्पर्येणमुक्तिकारणं चेति । वीतरागसदृष्टीनां पुनः पुण्य-पापद्वयविनाशे तद्भवेऽपि मुक्तिकारणमिति । - द्रव्यसंग्रह टीका ३६/३५२/१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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