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________________ ॐ शीघ्र मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय : अविपाक निर्जरा ॐ ४७७ * के शुभ या अशुभ फल के वेदन = भोगने को विपाक कहा जाता है। उक्त विपाक = फल-भोग के द्वारा जो कर्मक्षय होता है, उसे सविपाक निर्जरा कहते हैं। सविपाक निर्जरा की क्रिया नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव सभी गतियों में, पृथ्वीकायिक आदि पाँच स्थावर (एकेन्द्रिय) जीवों से लेकर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियों, मनुष्यों, नारकों और देवों आदि सभी योनियों में सर्वत्र सदैव प्रतिक्षण चालू रहती है।' 'भगवती आराधना' में कहा गया है“सविपाक निर्जरा तो केवल सर्व-उदयगत कर्मों की होती है।" 'बारस अणुवेक्खा' के अनुसार-“चारों गतियों के सभी जीवों को पहली अर्थात् सविपाक निर्जरा होती है।" 'सर्वार्थसिद्धि' में सविपाक को विपाकजा निर्जरा कहकर उसकी परिभाषा दी गई है-क्रम से परिपाककाल को प्राप्त हुए और अनुभव (फल-भोग) रूपी उदयावली के स्रोत में प्रविष्ट हुए, ऐसे शुभ-अशुभ कर्म की फल देकर जो निवृत्ति होती है, वह विपाकजा निर्जरा है। अविपाक निर्जरा का लक्षण. स्वरूप और कार्य दूसरी है-अविपाक निर्जरा। इसके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म को बिना भोगे ही उसे समाप्त कर दिया जाता है। अविपाक निर्जरा का लक्षण ‘सर्वार्थसिद्धि' में इस प्रकार दिया गया है अविपाक निर्जरा का लक्षण और स्वरूप "आम और कटहल (पनस) को जैसे औपक्रमिक क्रियाविशेष द्वारा अकाल में ही पका लेते हैं, उसी प्रकार जिस (पूर्वबद्ध) कर्म का विपाककाल (उदयकाल) अभी प्राप्त नहीं हुआ है तथा जो कर्म उदयावली से बाहर स्थित है, ऐसे कर्म को (तप आदि औपक्रमिक क्रियाविशेष के सामर्थ्य से) उदयावली में प्रविष्ट कराके अनुभव किया (समभावपूर्वक भोगा) जाता है, वह अविपाकजा निर्जरा है।" 'भगवती आराधना' के अनुसार-“अविपाक निर्जरा तप के द्वारा सर्वकर्मों की होती है।" 'बारस अणुवेक्खा' के अनुसार-“अविपाक निर्जरा सम्यग्दृष्टि व्रतधारकों को होती है।"३ १. अध्यात्म प्रवचन' के आधार पर, पृ. ९०, ९२-९३ २. (क) सव्वेसिं उदय-समागदस्स कम्मस्स णिज्जरा होइ। -भगवती आराधना १८४९ (ख) चादुगदीणं पढमा, वयजुत्ताणं हवे बिदिया। -बारस अणुवेक्खा ६७ (ग) क्रमेण परिपाक-काल-प्राप्तस्यानुभवोदयावलि-स्रोतोऽनुप्रविष्टस्यारब्धफलस्य या निवृत्तिः सा विपाकजा निर्जरा। -सर्वार्थसिद्धि ८/२३/३९९/९ ३. (क) यत्कर्माऽप्राप्तकालमौपक्रमिकक्रियाविशेषसामर्थ्यानुदीर्णं वलादुदीर्णोदयावलिं प्रवेश्य वेद्यते, आम्र-पनसादिपाकवत् सा अविपाकजा निर्जरा। -सर्वार्थसिद्धि ८/२३/३९९/९ (ख) कम्मस्स तवेण पुणो सव्वस्स विणिज्जरा होइ। -भगवती आराधना १८४९ (ग) वयजुत्ताणं हवे बिदिया। ___ -बारस अणुवेक्खा ६७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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