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________________ ॐ ४७६ * कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 कि स्वर्ग-नरक आदि के या परिवार, समाज आदि के भी बन्धन हैं। यह सत्य है। किन्तु जी कर्मबन्धन बाँधा है, उसे तोड़ने की, सर्वथा क्षय करने की, उसे आते हुए रोकने (संवर करने) की क्षमता भी उसी व्यक्ति में है। कोई भगवान, देवी-देव या शक्तिमान उसके कर्मों को नहीं काट सकता, स्वयं पुरुषार्थ द्वारा कर्मबन्ध को तोड़ने की क्षमता भी उसी में है। अतः सम्यग्दृष्टि मुमुक्षु साधक के सामने यह सवाल नहीं है कि बद्ध कर्मबन्ध से छुटकारा हो सकता है या नहीं? बद्ध कर्मों को क्षय करने की समस्या उन तत्त्व-चिन्तकों के समक्ष कभी प्रस्तुत नहीं होती, जो स्वर्ग-नरक से आगे बढ़कर मोक्ष, मुक्ति, अपवर्ग या आत्मा के निर्वाण में विश्वास रखते हैं।' ... जैन-कर्मविज्ञान बद्ध दशा और मुक्त दशा दोनों को मानता है यह सवाल तो उन विचारकों के समक्ष पैदा होता है, जिन्होंने मोक्ष, मुक्ति या अपवर्ग की सत्ता को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने आत्मा के द्वारा बन्धन से सर्वथा मुक्त होने का सिद्धान्त स्वीकार ही नहीं किया। उन्होंने आत्मा के जन्म-मरण का एक ऐसा चक्र स्वीकार कर लिया है, जिसे कभी मिटाया नहीं जा सकता। जैन-कर्मविज्ञान-पारंगत तो आत्मा की परम्परागत बद्ध दशा भी मानते हैं और उतनी ही तीव्रता के साथ आत्मा की मुक्त दशा को भी मानते हैं। केवल मानते ही . नहीं, आत्मा के साथ बद्ध कर्मों के बन्ध को काटने के लिए सत्पुरुषार्थ करने में भी विश्वास रखते हैं, क्योंकि बन्ध और मोक्ष दोनों सापेक्ष शब्द हैं। बन्ध है इसलिए मोक्ष की उपयोगिता या मुक्त दशा भी है। बन्ध है तो मोक्ष भी अवश्य है। निर्जरा के प्रकार : सविपाक और अविपाक ___ ऐसी स्थिति में सहज ही प्रश्न उपस्थित होता है-आत्मा पर लगे हुए कर्मों के बन्धन किस पुरुषार्थ से मिटें? कर्मबन्ध से सर्वथा मुक्ति कैसे मिले? इस प्रश्न के समाधान में जैन-कर्मवैज्ञानिकों ने दो उपाय बतलाए हैं-सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा। इन दोनों प्रकार की निर्जराओं के अलावा बन्धन से मुक्त होने का कोई अन्य उपाय नहीं है। सविपाक और अविपाक, ये दो मार्ग ही ऐसे हैं, जिनके द्वारा आत्मा कर्मबन्धन से मुक्त हो सकता है। सविपाक निर्जरा वह है, जिसमें पूर्वबद्ध कर्मों के उदय में आने पर उनका फल भोगकर उन कर्मों का क्षय कर देना। विपाक सहित को सविपाक कहा जाता है। सविपाक निर्जरा का लक्षण, स्वरूप और कार्य विपाक का अर्थ है-कर्मफल-भोग, कर्म की स्थिति का परिपाक या रस, फल एवं कर्म का उदयकाल । पूर्वबद्ध कर्म, जो संचित थे, उनके उदयकाल में, उन कर्मों १. 'अध्यात्म प्रवचन' के आधार पर, पृ. ८९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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