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________________ भेदविज्ञान की विराट् साधना ४६१ के आधार पर टिका हुआ है । इन दोनों में केवल इतना सा अन्तर अवश्य है कि शरीर दृश्य है, मन अदृश्य है। शरीर स्थूल है, मन सूक्ष्म शरीर के अन्तर्गत जो तैजस् और कार्मण शरीर हैं, वे भी तो सूक्ष्म- सूक्ष्मतर हैं । स्थूल शरीर और मन में सिर्फ स्थूल और सूक्ष्म की जल और भाप के समान भिन्नता है । गुण में दोनों समान हैं। मन में विचार उत्पन्न होते हैं, शरीर उन्हें क्रियान्वित करता है । मन प्रसन्न और अप्रसन्न - सुखी और दुःखी होता है तो उसका प्रभाव शरीर पर भी पड़ता है और वचन तो मन की ही छाया है। वचन काया में छिपी हुई मन की सघन परत है अथवा विचार, संस्कार और धारणाओं की स्थूल परत वचन है। उसकी सूक्ष्म परत मन है - मन में उठे हुए विचार हैं। जो मन में होता है, वही देर-सबेर वचन में होता है । इसलिए यों कहा जा सकता है - प्रच्छन्न या मौन रहा हुआ विचार मन है और अभिव्यक्ति पाया हुआ प्रकट विचार वचन है। इसलिए 'शरीर' कहते ही शरीर के अन्तर्गत इन सबको समझ लेना चाहिए । एक दृष्टि से देखा जाए तो मन, बुद्धि, चित्त, हृदय, वाणी, अंगोपांग या इन्द्रियाँ जो भी अच्छा या बुरा, पापकर्म या पुण्यकर्म करते हैं, उनका शुभ-अशुभ फल तो शरीर को ही भोगना पड़ता है । मन आदि सूक्ष्म और अदृश्य भाग तो केवल विचार करके या राग-द्वेषादि या कषायादि विकारों का अनुभव करके ही रह जाता है, उसका शुभाशुभ कर्मफल के रूप में परिणाम तो शरीर को ही वेदन करना ( भोगना पड़ता है। उदाहरणार्थ- मन में जब बड़प्पन की अहंता या महत्त्वाकांक्षा उठती है, तब उसके साथ ईर्ष्या, द्वेष, रोष, छल, मोह, मद, अभिमान, दर्प, वैर-विरोध आदि की हुँकारें (लहरें ) भी उठती रहती हैं, जिन्हें व्यक्ति वचन के द्वारा यदा-कदा प्रकट भी करता है और काया के द्वारा दूसरों का तिरस्कार, उन पर प्रहार, संहार आदि करने की चेष्टा करता है। वैभव तथा अमीरी की महत्त्वाकांक्षा को टिकाये रखने के लिए मन-वचन-काया के द्वारा व्यक्ति भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, तिकड़मबाजी, ठगी, बेईमानी, कूटलेख, चोरी, डकैती, गबन आदि के प्लान बनाकर उन्हें कार्यरूप में परिणत करता, अपने लोगों को वाणी द्वारा प्लान समझाता है, झूठे परामर्श या उपदेश-निर्देश देता है, पापकर्मों को करने के लिए प्रोत्साहन देता है । इन्द्रियों की विषय - सुखलिप्सा का विचार मन में उदित होता है, शरीर उसे मूर्तरूप देता है। जिसका दुष्परिणाम आखिरकार शरीर को ही भोगना पड़ता हैं। भेदविज्ञान से अनभिज्ञ, शरीर के लिये ही सारी कमाई खर्च डालता है इसलिए आत्मा से शरीर की पृथक्ता का अभ्यास करने वाले को शरीर से सम्बद्ध इन सब परिकरों से भिन्नता का ध्यान रखना चाहिए। भेदविज्ञान में जिसकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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