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________________ ॐ भेदविज्ञान की विराट् साधना ॐ ४५३ 8 किये हुए धन-सम्पत्ति, मकान, वस्त्राभूषण आदि साधन यहीं रह जाते हैं; आत्मा; जो शरीर का तथाकथित कल्पित मालिक है, वह इन सबको छोड़कर अगले लोक में चला जाता है। शुभ-अशुभ कर्म, जो शरीर के निमित्त से उस आत्मा (जीव) ने बाँधे थे, उसके साथ परलोक में जाते हैं। शरीर और आत्मा के गुणधर्म में अन्तर है शरीर तथा उससे सम्बन्धित मन, वाणी, इन्द्रियाँ, अंगोपांग आदि सब जड़ हैं, चेतनारहित हैं, जबकि चेतन है, ज्ञानवान् है, शुद्ध आत्मा ज्ञान-दर्शन-सुखशक्ति-सम्पन्न है। इसलिए शरीर और आत्मा दोनों के गुणधर्म पृथक्-पृथक् हैं, इनमें तादाम्य-सम्बन्ध या अभेद-सम्बन्ध नहीं है। पूर्वबद्ध कर्मों के कारण आत्मा का शरीर के साथ मात्र संयोग-सम्बन्ध है। . वीतराग प्रभु से भेदविज्ञान की प्रार्थना इसीलिए अयोग-संवर (त्रिविधयोग निरोधरूप संवर) के साधक की ओर से शरीर और आत्मा के भेदविज्ञान के लिए इस प्रकार की प्रार्थना कितनी उपयोगी है ?-“हे वीतराग प्रभो ! आपकी स्वभावसिद्ध कृपा से मेरी आत्मा में ऐसी आत्मिक शक्ति प्रकट हो कि मैं अपनी आत्मा को (सभी प्रकार के) शरीर (आदि) से उसी प्रकार पृथक् कर सकूँ, जिस प्रकार म्यान से तलवार अलग की जाती है, क्योंकि वस्तुतः मेरी आत्मा अनन्त शक्ति-सम्पन्न है और समस्त दोषों से रहित वीतराग-स्वरूप है।" शरीरादि को आत्मा से अभिन्न मानने पर अनेक आपत्तियाँ प्रश्न होता है, शरीरादि आत्मा के साथ अभिन्न रहे या माना जाए तो क्या हर्ज है ? इसका समाधान यह है कि आत्मा को जब शरीरादि के साथ अभिन्न माना या रहने दिया जाता है तो शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थों को लेकर मोह, ममत्व, मूर्छा, आसक्ति, घृणा, द्वेष, द्रोह, वैर-विरोध आदि विकार एक या दूसरे प्रकार से आ धमकते हैं, उन्हीं को लेकर फिर तन-मन-वचन से हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह के पाप-दोषों की वृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त परिवार, धन-सम्पत्ति, राज्यसत्ता, जमीन-जायदाद आदि शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव वस्तुओं को लेकर राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान (अहंकार, मद), माया, लोभ आदि विकार बढ़ते रहते हैं। फिर उन्हीं के कारण पापकर्मों का बन्ध होता रहता है। उनके फलस्वरूप नाना दुर्गतियों और अशुभ योनियों में बार-बार जन्म-मरण करना, परिभ्रमण करना, नाना यातनाएँ सहना और दुःख भोगना पड़ता है। इस कारण शरीर ही समस्त झगड़ों और खुराफातों की जड़ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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