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________________ ॐ ४५२ * कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ मकान-मालिक ने कहा-'भाई ! इस समय मुझे कुछ भी नहीं सूझ रहा है। उस तरफ क्या है ? यह भी मुझे पता नहीं है। तुम्हें जो मिले, वह ले आओ। . जितना बच जाय उतना ही ठीक है।'' वह दमकल-कर्मचारी अपने दो-चार साथियों को लेकर मकान के पिछले भाग में घुसा। और सिर्फ दस मिनट में एक वजनदार पेटी उठाकर ले आया। मकान-मालिक जवाहरात से भरी हुई इस पेटी को देखकर राजी-राजी हो गया। सोचा-“चलो, यह पेटी सुरक्षित है तो इसमें रखे हुए जवाहरात से इससे भी वढ़िया मकान बनवाया जा सकेगा।" पुनः दमकल-कर्मचारी ने कहा-“सेठ ! अभी एक बार और अंदर जाया जा सकता है। . बोलो, कुछ याद आता हो तो हम अभी ले आएँ !'' मकान-मालिक बोला-"भाई ! मैंने तुम्हें पहले ही कहा था इस समय मेरा दिमाग स्वस्थ नहीं है। तुम्हें जो भी मिले, ठीक लगे, उसे ले आओ।" लगभग आधे घंटे बाद वे दमकल-कर्मचारी जब मकान-मालिक के पास आए, तब उनके हाथ में २८ वर्ष के एक जवान पुत्र की, जली हुई तथा विकृत बनी हुई लाश थी। लाश को देखते ही मकान-मालिक मूछित . होकर धड़ाम से धरती पर गिर पड़ा। " इस समग्र घटना को लिखने के पश्चात् स्वामी रामतीर्थ ने नीचे एक टिप्पण लिखा है-“मकान जल गया है, माल बच गया है, किन्तु, मालिक (यह सब छोड़कर परलोक) रवाना हो गया है।'' शरीरादि साधनों की चिन्ता : साध्य-आत्म-देव की उपेक्षा ___ यही स्थिति आज आत्मा की सर्वथा उपेक्षा करके शरीर की ही एकमात्र रक्षा करने तथा सर्वस्व समझने वालों की हो रही है। शरीर तथा शरीर से सम्बद्ध इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त, हृदय, अंगोपांग आदि सब आत्मा की अभिव्यक्ति तथा आत्मा के ज्ञानादि गुणों को प्रगट करने के लिए साधन हैं, उपकरण हैं, औजार हैं। साध्य आत्मा है, आत्म-गुणों को प्राप्त करना है, वह आत्म-स्वभाव में स्थित होना है। परन्तु साधन को प्रायः साध्य मान लिया जाता है और वास्तविक साध्य से दूर होने का प्रयत्न होता है। शरीरादि के द्वारा आत्मा अपने स्व-धर्म का पालन कर सकता है। परन्तु भेदविज्ञान के तत्त्व से अनभिज्ञ लोग स्व-धर्म का पालन करने के बजाय शरीरादि के माध्यम से पर-धर्म में पड़ जाते हैं। जबकि शरीर और आत्मा गुणों की दृष्टि से पृथक्-पृथक् हैं। इन्हें एक मानकर ही अधिकांश व्यक्ति शरीर के मोह, आसक्ति, ममत्व और अहंत्व में पड़कर आत्मा को विलकुल भूल जाते हैं। नतीजा यह होता है कि शरीर और उसके निमित्त से ममत्वपूर्वक जुटाये हुये, संग्रह १. 'दिव्यदर्शन, दि. २९-१२-९0 के अंक में उद्धृत घटना से, पृ. १२७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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