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________________ ॐ ४५० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ * भोगोपभोग के साधन जुटाते हैं। इस जगत् में अधम से अधम पुरुषों को सुलभ इन्द्रिय-विषयों की प्राप्ति, सुरक्षा और उपभोग के पीछे अपनी आत्मा की अमूल्य शक्तियों को मनुष्य बर्बाद कर रहा है, जीवन के बहुमूल्य क्षणों को इन्हीं को पाने और भोगने के पीछे पूरा कर रहा है। इस जगत् की उत्तम आत्माओं को सुलभ तथा आत्मा में निहित ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप तथा अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, क्षमा, दया, शील, सन्तोष आदि सद्गुणों को अर्जित करने, सुरक्षित रखने तथा उनकी प्राप्ति के लिए जीवन के इन कीमती क्षणों का उपयोग नहीं करता। शरीर की हिफाजत और सुरक्षा, सुविधा तथा सुखोपभोग एवं पेट और प्रजनन को ही अधिकांश मानव अपने जीवन का लक्ष्य बना बैठे हैं। वे मन को इन्द्रियों के अनुकूल मनोज्ञविषयों में बहलाने के सिवाय अन्य कुछ नहीं करते। जिसके आधार पर इस शरीर का भाव पूछा जाता है, उस आत्मा की पलभर भी चिन्ता नहीं करते। अधिकांश व्यक्तियों की ऐसी तैयारी नहीं होती। वे समय का बहाना बनाकर आत्म-देवता की उपेक्षा कर जाते हैं। जिस मन-बुद्धि-चित्त और हृदय (अन्तःकरण) के माध्यम से केवलज्ञान की प्राप्ति तक पहुँचा जा सकता है, शरीर और आत्मा का भेदविज्ञान करके विभावों व पर-भावों से विरत होकर आत्म-स्वरूप में, आत्म-भाव में रमण किया जा सकता है, तप. और त्याग द्वारा, धर्माचरण द्वारा आत्म-शक्ति बढ़ाई जा सकती है, संवर और निर्जरा के द्वारा नये और पूर्वबद्ध कर्मों का निरोध एवं क्षय किया जा सकता है, आत्म-शुद्धि की जा सकती है, उस अन्तःकरण के सदुपयोग का अधिकांश व्यक्तियों को सद्ज्ञान ही नहीं है। वे शरीररूपी रत्नजड़ित थाल में कोयले और कचरा भरने का काम कर रहे हैं। शान्तचित्त से विचार करें तो हमें स्पष्ट प्रतीत होगा कि ऐसे व्यक्तियों का नम्बर बुद्धिमानों में नहीं गिने जाने लायक है। ऐसे व्यक्तियों को कोई विवेकशील व्यक्ति चतुर नहीं, बुद्धू ही कहेगा। आत्म-देव की उपेक्षा करने से असन्तोष ऐसे लोगों की दशा उस यात्री की-सी है, जिसका सामान ट्रेन के डिब्बे में चढ़ जाए, किन्तु वह यात्री स्टेशन पर ही रह जाए, ऐसा कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। ऐसे व्यक्तियों को कदाचित् पुण्ययोग से अनुकूल विषय-सुख मिल जाए और शरीर की सँभाल रखने का सन्तोष भी प्राप्त हो जाए, किन्तु आत्मा को सन्तुष्ट करने का. आत्म-देव की पूजा-अर्चा करने का, रुग्ण आत्मा की-कषायों और विषयरागों से बीमार आत्मा की-चिकित्सा या चिन्ता करने का सुयोग उन्हें शायद ही प्राप्त होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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