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________________ ॐ भेदविज्ञान की विराट् साधना * ४४९ * दवाइयों के संग्रह की नहीं। इसी प्रकार अनन्तज्ञानी महापुरुष हमें पूछना चाहते हैं, जिनवाणी के माध्यम से कि तुम अपने जीवन में शरीर को मुख्यता दे रहे हो या आत्मा को? शरीर की चिन्ता : आत्म-देवता की उपेक्षा ! शरीर आत्मा के रहने के लिए बिल्डिंग है, मंदिर है, आत्म-विद्या प्राप्त करने और उसे क्रियान्वित करने का विद्यालय है। परन्तु जिसके लिए यह शरीर मिला, इन्द्रियाँ मिलीं, अंगोपांग मिले, मन, बुद्धि, चित्त और हृदय मिले; आहारादि छह पर्याप्तियों से पर्याप्त अथवा इन्द्रियाँ, मन, प्राण, अंगोपांग आदि से पूर्ण या युक्त शरीर प्राप्त हुआ, क्या हम उसे उसमें विराजमान आत्मा की सेवा में लगाते हैं, उसे आत्म-गुणों से सजाते हैं, उस आत्म-देवता को अशुद्ध, मलिन, दूषित होने से बचाते हैं या उक्त शरीर की साज-सज्जा में ही लगे रहते हैं, शरीर की ही सुरक्षा, सफाई, आहारादि से पुष्टि और शक्ति-वृद्धि करने में लगे रहते हैं, इन्द्रियों को विषय-वासनाओं और मन को विषयों के प्रति राग-द्वेष या कषाय आदि में लगाकर सुख मानते हैं ? सच है, अधिकांश मानव आत्म-देव की कोई परवाह नहीं करते अथवा विषयविकारों और कषायों-नोकषायों से, मिथ्याज्ञान-दर्शन से मलिन रुग्ण और अशक्त बने हुए आत्म-देव की चिकित्सा करने का कोई विचार नहीं करते, केवल शरीर की चिकित्सा के लिए दवाओं और चिकित्सकों की शरण में जाते हैं। अरिहन्त, सिद्ध परमात्मा, साधु महात्मारूपी चिकित्सक और शुद्ध धर्मरूप उपचार की शरण स्वीकारने में लज्जा महसूस करते हैं अथवा उपेक्षा कर जाते हैं, जो आत्म-देव शरीररूपी चिकित्सालय में वर्तमान में भवरोगों तथा कषायादि व्याधियों से रुग्ण है, मनोरोग से त्रस्त है, आध्यात्मिक रोगों से संतप्त है। आत्मा की सार-संभाल की कोई चिन्ता नहीं - सारांश यह है कि शरीर और आत्मा, इन दोनों में से हम प्रायः शरीर को ही अधिक महत्त्व देते हैं। इस देहरूपी देवालय में विराजमान, जो आत्म-देव है,' उसकी कोई परवाह नहीं करते। शरीर के लिये अच्छा स्वादिष्ट खान-पान जुटाते हैं, रहने के लिए बढ़िया बंगला, कोठी या मकान बनवाते हैं, उसके मनोरंजन के लिए टी. वी., वीडिओ, ओडियो, रेडियो, सिनेमा तथा इसके अतिरिक्त विविध खेल, पाँचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्तिपूर्वक रमण आदि में प्रवृत्त होते हैं। शरीर की सुरक्षा के लिए शक्ति और पुष्टि के लिए नाना प्रकार के टॉनिक, दवाइयाँ और उपचार का उपयोग करते हैं। शरीर की सुविधा के लिए विविध १. देहो देवालयः प्रोक्तः, आत्मा देव एव च त्यजेदज्ञाननिर्माल्यं, सोऽहंभावेन पूजयेत्। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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