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________________ ॐ व्युत्सर्गतप : देहातीत भाव का सोपान ® ४४७ ® है-ज्ञानावरणीय कर्म-व्युत्सर्ग-साधना। भगवान महावीर ने आगमों में यत्र-तत्र विभिन्न कर्मों और उनकी मूल-उत्तर-प्रकृतियों के आस्रव और बन्ध के पृथक्-पृथक् कारण बताये हैं, तथैव उन-उन कर्म-प्रकृतियों के क्षय करने एवं संवर-निर्जरा करने के कारण भी शास्त्रों में यत्र-तत्र बताये गए हैं। उन्हें समझकर कर्मबन्ध के कारणों से दूर रहना और कर्मक्षय व कर्मनिरोध के उपायों को समझना एवं कर्मों को तोड़ना या कर्मनिरोध करना कर्म-व्युत्सर्ग की प्रक्रिया है। जैसे कि 'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा है-स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है। विनय-वन्दना करने से नीच गोत्रकर्म का क्षय होता है। ये और इस प्रकार के कई सूत्र कर्मक्षय (कर्मनिर्जरा) और कर्मसंवर के विषय में भगवतीसूत्र, प्रश्नव्याकरणसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, अन्तकृद्दशांगसूत्र आदि आगमों में उल्लेख मिलते हैं। अतः कर्म-व्युत्सर्ग के लिए विभिन्न कर्मों के बन्ध के कारणों से बचना तथा उनसे मुक्त होने के उपायों (कारणों) में प्रवृत्त होना चाहिए। यही कर्म-व्युत्सर्ग की विधि है। इस प्रकार अनशनादि छह बाह्य और प्रायश्चित्त आदि छह आभ्यन्तरतप सांगोपांग विवेचन पढ़कर सर्वकर्ममुक्ति का लक्ष्य रखकर सर्वकर्ममुक्ति का पुरुषार्थ करना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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