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ॐ ४४६ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ®
द्रव्य-संसार और भाव-संसार को कम करने के अचूक उपाय
द्रव्य-संसार-नरक-तिर्यंच-मनुष्य-देवगतिरूप है। क्षेत्र-संसार-लोकाकाशरूप या ऊर्ध्व-मध्य-अधोलोकरूप है। काल-संसार-एक समय से लेकर पुद्गलपरावर्तकालरूप है। भाव-संसार-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग आदि आस्रव और बन्ध के कारणभूत हैं और संसार परिभ्रमण के हेतुरूप हैं। यहाँ संसार से चारगतिरूप द्रव्य-संसार तथा कषायादिरूप भाव-संसार ही समझना चाहिए; क्योंकि क्षेत्ररूप या कालरूप संसार का व्युत्सर्ग सम्भव नहीं होता और न ही वह साधक के लिए आवश्यक है। जिन कारणों से द्रव्य-संसाररूप नरकगति, . तिर्यंचगति, मनुष्यगति या देवगति का बन्ध होता है, उन कारणों को समाप्त करने-क्षीण करने या कम करने की साधना करना द्रव्य-संसार-व्युत्सर्ग है। वस्तुतः भाव-संसार ही संसार है। संसार-परिभ्रमण का मूल हेतु तो मिथ्यात्व, कषायादि ही है। इस भाव-संसार को कम करने या त्याग करने के लिए पुरुषार्थ या संकल्प करना, महाव्रतादि या दशविध श्रमणधर्म आदि का आचरण करना, ज्ञान-दर्शनचारित्रतपरूप मोक्षमार्ग की साधना करना भाव-संसार-व्युत्सर्ग है। ‘आचारांगसूत्र' में कहा है-“जे गुणे, से आवट्टे।"-जो गुण हैं, अर्थात् इन्द्रियों के विषय हैं, वे ही आवत-संसार-परिभ्रमण के कारण हैं। विषयों में आसक्त प्राणी संसार में परिभ्रमण करता है, गुणातीत (विषयों से विरक्त-अनासक्त) आत्मा संसार में जन्म-मरण नहीं करती। इस तथ्य को हृदयंगम कर लेने पर साधक भाव-संसार में भ्रमण नहीं करता।' 'उत्तराध्ययनसूत्र' में बताया गया है कि “जो अन्तिम समय तक जिन-वचन में अनुरक्त रहते हैं, जिन-वचनों का भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल तथा रागादि दोषों से असंक्लिष्ट होकर परित्त-संसारी (परिमित संसार वाले) होते हैं।"२ कर्म-व्युत्सर्ग : क्या और कैसे-कैसे ?
भाव-व्युत्सर्ग का तृतीय प्रकार है-कर्म-व्युत्सर्ग। कर्मों का व्युत्सर्ग करना कठिन कार्य है। कर्म की मूल-प्रकृतियाँ आठ हैं तथा उत्तर-प्रकृतियाँ १४८ हैं। उन प्रकृतियों को परिवर्तित करने, उन्हें विसर्जित करने का नाम कर्म-व्युत्सर्ग है। ज्ञानावरणीय कर्म-प्रकृतियों को नष्ट करने वाली साधनाओं में संलग्न होने का नाम
१. (क) चउव्विहे संसारे प. तं.-दव्वसंसारे. खेत्तसंसारे, कालसंसारे, भावसंसारे।
-स्थानांग ४/१/२६१ (ख) आचारांग, श्रु. १, अ. १, उ. ५ २. जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जो करेंति भावेण। अमला असंकिलिट्ठा ते होंति परित्तसंसारी।
-उत्तरा.३६/२५८
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