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________________ ॐ ४१६ * कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 किस-किस गुणस्थान में कौन-सा ध्यान होता है ? इस प्रकार ध्यान के विषय में गहराई से चिन्तन करने के पश्चात् यह देखना है कि किस गुणस्थान में कौन-सा सुध्यान है ? श्वेताम्बर परम्परा में धर्मध्यान का प्रारम्भ छठे गुणस्थान से माना गया है, जबकि दिगम्बर परम्परा में सातवें गुणस्थान से उसका प्रारम्भ माना जाता है। शुक्लध्यान के प्रथम दो प्रकार सातवें से बारहवें तक होते हैं। शुक्लध्यान का तृतीय प्रकार तेरहवें गुणस्थान में होता है, जबकि चतुर्थ प्रकार में तो आत्मा चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश कर जाती है। शुक्लध्यान के प्रथम दो प्रकारों में श्रुतज्ञान का आलम्बन होता है, किन्तु शेष दो में किसी प्रकार का आलम्बन नहीं होता। ध्यान के ज्ञातव्य चार अधिकारों में चौथा ध्यानफल ___ 'धवला' में ध्यान के विषय में ज्ञातव्य चार अधिकार बताये हैं-ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यानफल। प्रथम तीनों के विषय में काफी लिखा जा चुका है। ध्यान के फल के बारे में कुछ बातें अवश्य विचार लेनी चाहिए।' धर्म-शुक्लध्यान के लोकोत्तर और लौकिक सात्त्विक फल्न धर्मध्यान और शुक्लध्यान को सम्यक् प्रकार से विधिवत् सम्पन्न करने से सकामनिर्जरा और केवलज्ञान, मति-श्रुतज्ञान में विशुद्धता आदि तथ्य शीघ्र ही सर्वकर्ममुक्ति प्राप्त होती है। यह ध्यान का लोकोत्तर फल है। ध्यान के लौकिक फल भी कम नहीं हैं। शरीर और मन की स्वस्थता, स्फूर्ति, चिन्ता, तनाव, उद्विग्नता, उदासी, बेचैनी, ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, वैरं-विरोध, रोष, आसक्ति, क्रोधादि कषाय आदि की भी मन्दता और उनसे मुक्ति भी शुभ ध्यानों से सम्भव है। 'ज्ञानार्णव' के अनुसार-“अष्टदल कमल पर स्थापित स्फुरायमाण आत्मा एवं ‘णमो अर्हताणं' के आठ अक्षरों का प्रत्येक दिशा के सम्मुख होकर क्रमशः आठ रात्रि पर्यन्त १,१00 बार जप (पूर्वक ध्यान) करने से सिंह आदि क्रूर जन्तु भी (ध्याता के समक्ष) अपना क्रूर गर्व-स्वभाव छोड़ देते हैं। आठ रात्रियाँ व्यतीत हो जाने पर इस कमल के पत्तों पर अंकित अक्षरों को क्रमशः निरूपण करके देखें, तदनन्तर यदि प्रणव (ॐ) सहित उस मंच का ध्यान करे तो सकल मनोवांछित कार्य सिद्ध होते हैं।" 'तत्त्वानुशासन' के अनुसार-“जो जिस कर्म का स्वामी है, अथवा जो जिस कर्म को करने में समर्थ देव है, उसके ध्यान से व्याप्त-चित्त वाला ध्याता उक्त देवरूप होकर अपना मनोवांछित कार्य (अर्थ) सिद्ध करता है।' इस प्रकार ध्यान-साधना १. तत्थ ज्झाणे चत्तारि अहियारा होंति, ध्याता, ध्येयं, ध्यानं ध्यानफलामिति। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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