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________________ ® स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति 8 ४१५ ® शुक्लध्यानी आत्मा के चार लिंग (चिह्न) शुक्लध्यानी आत्मा के चार लिंग (चिह्न) होते हैं-अव्यथा, असम्मोह, विवेक और व्युत्सर्ग। अव्यथा-भयंकर से भयंकर उपसर्ग आने पर भी वह जरा-सा भी व्यथित-विचलित नहीं होता। असम्मोह-उसकी श्रद्धा-निष्ठा अविचल होती है। देव आदि द्वारा माया आदि की विकुर्वणा करने पर भी उसकी श्रद्धा नहीं डगमगाती, वह विसम्मोहित नहीं होता। तात्त्विक विषयों पर भी उसकी श्रद्धा निःशंक होती है। विवेक-वह शरीर और आत्मा की पृथक्ता के भेदविज्ञान से अभ्यस्त होता है। वह शीघ्र कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक कर पाता है। व्युत्सर्ग-वह देह आदि की ममता-मूर्छा-आसक्तियों का पूर्णतः विसर्जन कर, अनासक्त और ममत्वयुक्त होता है। प्रति क्षण वीतरागभाव में लीन रहता है, इसी भाव में आगे बढ़ता रहता है। शुक्लध्यानी की पहचान इन चार चिह्नों से सहज ही हो जाती है। शुक्लध्यान के चार आलम्बन शुक्लध्यान के भव्य प्रासाद पर आरूढ़ होने के लिए चार आलम्बन बताये हैंक्षमा-क्रोध का प्रसंग उपस्थित होने पर भी वह क्रोध नहीं करता। मार्दव-मान का प्रसंग आने पर भी वह मान (मद या अहंकार) नहीं करता। आर्जव-माया के परित्याग होने से उसके जीवन के कण-कण में सरलता (काया, भाषा, भाव और योगों में ऋजुता) होती है। मुक्ति-वह लोभ पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त कर लेता है। __शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ . इसी प्रकार शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं-(१) अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा, (२) विपरिणामानुप्रेक्षा, (३) अशुभानुप्रेक्षा, और (४) अपायाऽनुप्रेक्षा। पहली अनुप्रेक्षा में अनन्त भवपरम्परा का चिन्तन करता है। दूसरी अनुप्रेक्षा में वस्तु के प्रति क्षण परिवर्तन (अशुभ से शुभ में, शुभ से अशुभ में परिवर्तन) के चिन्तन से आसक्ति अत्यन्त कम हो जाती है। तीसरी अनुप्रेक्षा में संसार के अशुभ स्वरूप पर गहराई से चिन्तन करने से सांसारिक पदार्थों के प्रति निर्वेदभावना सुदृढ़ हो जाती है। चौथी अनुप्रेक्षा में जिन अशुभ कर्म-दोषों के कारण संसार-परिभ्रमण होता है, उन दोषों पर चिन्तन करने क्रोधादि दोषों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। ये अनुप्रेक्षाएँ तभी तक हैं, जब तक मन में पूर्ण स्थिरता नहीं होती, स्थिरता होने पर उसकी बहिर्मुखता नष्ट हो जाती है। ' (क/ स्थानरागसूत्र, स्था. ४, उ. १ (ख) भगवतीसूत्र, श. २५, उ.७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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