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* अप्रमाद - संवर का सक्रिय आधार और आचार २३
जागरूक हो जाता है, उस दिन अव्यक्त, अदृश्य एवं दूसरे के अन्तःस्थित विचार की भी झलक साफ मिल जाती है। "9
निष्कर्ष यह है कि अप्रमाद - संवर की सक्रिय साधना के सन्दर्भ में अजागृति, असावधानी और प्रमाद के तत्काल निरोध के लिए अपनी शुद्ध आत्मा या वीतराग परमात्मा को गुरु बनाकर इस प्रकार का प्रेक्टिकल प्रयोग कायोत्सर्ग एवं व्युत्सर्ग के माध्यम से करे तो व्यक्ति एक दिन अप्रमाद - संवर के शिखर तक पहुँच सकता है।
भगवान महावीर की अनुभवपूत वाणी इस तथ्य की साक्षी है - "जिस व्यक्ति को इन शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श का स्वरूप सम्यक् प्रकार से परिज्ञात हो गया है (अर्थात् जो इन पाँचों विषयों के प्रति राग-द्वेषरहित हो गया है), वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान् ( आचारांगादि शास्त्रों का वेत्ता ), धर्मवान् और ब्रह्मवान् हो जाता है। वह अपनी प्रज्ञा से लोक का परिज्ञान कर लेता है । वह सच्चा मुनि कहलाता है। वही‘धर्मवेत्ता और सरलात्मा होता है। वह वीर जाग्रत और वैर से उपरत होता है तथा दुःखों के कारणभूत कर्मों से मुक्त हो जाएगा।"२
शुभ योग-संवर के रूप में अप्रमाद - संवर की एक सरल उदात्तीकरण प्रक्रिया
यदि इतनी तैयारी न हो, मन बार-बार शंका, कांक्षा और विचिकित्सा के झूले में झूलता हो, श्रद्धा, भक्ति और सत्कार के साथ इस कठोर दीर्घकालिक अप्रमादसाधना से मन कतराता हो, साथ ही उसका मन इस अप्रमाद - साधना की प्रतिमा (प्रतिज्ञा) की कठोरता देखकर कोई आसान नुस्खा खोजने की प्रतीक्षा कर रहा हो, तब तक भाग्य भरोसे बैठे रहना चाहता हो, किन्तु फिर भी प्रमादानव से होने वाले पापकर्मबन्ध से विरत होने की ललक हो, उसके लिए स्थानांगसूत्र में अप्रमाद-संवर सन्दर्भ में प्रवृत्ति की उदात्तीकरण प्रक्रिया, शुभ योग-संवर के रूप में प्रस्तुत की
गई है। उस पाठ का भावार्थ इस प्रकार है
'आठ वस्तुओं की उपलब्धि के लिए साधक को सम्यक् चेष्टा करनी चाहिए, सम्यक् प्रयत्न करना चाहिए तथा सम्यक् पराक्रम करना चाहिए, इन आठों के विषय में जरा भी प्रमाद नहीं करना चाहिए - ( १ ) अश्रुत धर्मों को सम्यक् प्रकार से सुनने के लिए अभ्युत्थित ( जागरूक) रहे; (२) सुने हुए धर्मों को मनोयोगपूर्वक
१. 'आत्मरश्मि', अगस्त १९९१ में प्रकाशित सिकन्दरलाल जैन एडवोकेट के लेख से संक्षिप्त २. जस्सिमे सद्दा य रूवा य गंधा य रसा य फासा य अभिसमण्णागया भवंति, से आतवं, णाणवं, वेदवं धम्मवं बंभवं पण्णाणेहिं परिजाणति लोगं, मुणी ति वुच्चे, धम्मविदुत्ति अंजू आवट्टसोए संगमभिजाणति । जागरवेरोवइए वीरे ! एवं दुक्खा पमोक्खसि ।
- आचारांग, श्रु. १, अ. ३, उ. १, सू. १०७
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