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________________ ॐ २२ कर्मविज्ञान : भाग ७ * पूरा होते-होते सम्राट् फकीर की बात को समझ गया और सँभलने लगा। उसने फकीर से कहा-"गुरुजी ! अब नींद में भी मेरे हाथ सँभलने लगे हैं।" नींद में जब भी फकीर दबे पाँव आता, मगर सम्राट् जागकर बैठ जाता और कहता-गुरुजी ! माफ करिये, मैं जाग गया हूँ। अब मारने का कष्ट मत उठाइए। नींद में भी अब सम्राट् का हाथ अपनी ढाल पर पड़ा रहता था। अतः तीन महीने पूरे होते-होते नींद में भी हमला करना कठिन हो गया। अतः गुरु ने पूछा-"क्या हुआ इन तीन महीनों में?" सम्राट्-“गुरुजी ! दूसरा पाठ पूरा हो रहा है। पहले तीन महीनों के पाठ में विचार-विकार खो गए, दूसरे तीन महीनों में सपने खो गए, नींद भी जागृतियुक्त हो गई। अब बिना सपने के नींद आती है। मेरे भीतर अब अद्भुत शान्ति है, एक अहंकारादि शून्यता, निर्विचारता, मौन और नीरव शान्ति पैदा हो गई है। मैं बड़े आनन्द में हूँ।" गुरु बोले-“अभी पूरा आनन्द नहीं. मिला, यह तो उसकी एक बाहरी झलक है। कल से तेरा तीसरा पाठ शुरू होगा। अब तक मैं नकली तलवार से हमला करता था, अब असली तलवार से होगा।" सम्राट-"तब तो मैं एक बार भी चूक गया तो मेरी जान चली जाएगी।" फकीर ने कहा-"जब यह पक्का पता हो जाएगा कि एक बार भी चूक गया तो जान चली जाएगी, तो कोई भी नहीं चूकता। ऐसी चुनौती के समय प्राण इतने ऊर्जा से चलते हैं कि फिर चूकने का मौका ही नहीं मिलता और बूढ़े फकीर ने दूसरे दिन से असली तलवार से हमला शुरू करने का कहा।" सम्राट् यह जानकर बड़ा हैरान हुआ कि लकड़ी की तलवार की तो उसके शरीर पर बहुत चोटें लगी थीं, परन्तु इन तीन महीनों में असली तलवार की एक भी चोट नहीं लगी।" सम्राट का मन शान्ति-सरोवर हो गया। अब हृदय की झील में अहंकारादि प्रमाद की कोई भी लहर नहीं उठती। तभी उसके मन में एक विचार कौंधा-तीन महीने पूरे हो गए हैं तीसरे पाठ के। कल अन्तिम दिन है गुरुजी से विदा होने का। मुझे इन्होंने ९ महीनों तक एक दिन भी प्रमाद में नहीं जाने दिया और न ही असावधान रहने दिया, हमेशा जगाए रखा। कल तो मैं विदा हो जाऊँगा। गुरुजी भी इतने सावधान हैं या नहीं, यह भी देख लूँ। उसने तलवार उठाकर वृक्ष के नीचे बैठे हुए गुरुजी पर पीछे से हमला करने का सोचा। उसने इतना सोचा ही था, अभी कुछ किया नहीं था कि गुरुजी वहीं वृक्ष के नीचे बैठे-बैठे ही चिल्लाये-“वत्स ! ऐसा मत करना। मैं सावधान हूँ। वृद्ध होने पर भी जाग्रत हूँ।" सम्राट ने साश्चर्य पूछा-"गुरुजी ! मैंने तो केवल सोचा ही था, अभी किया कुछ भी नहीं था, आपको मेरे मन की बात का कैसे पता चल गया?'' वृद्ध गुरु ने कहा-"जब चित्त बिलकुल शान्त, विचारशून्य, मौन और अहंकारादि प्रमाद स्थान से रहित हो जाता है, तब दूसरों के पैरों की ध्वनि ही नहीं, दूसरों के चित्त की पदध्वनियाँ भी सुनाई पड़ने लग जाती हैं। जिस दिन चित्त इतना शान्त, निर्मल, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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