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________________ ३७८ कर्मविज्ञान : भाग ७ ४ प्रकार हैं। इन चारों में अवग्रह, ईहा और अवाय तक मन द्वारा मनन और स्मरण किया जाता है, धारणा में स्मृत विषय को अन्तर्मन में स्थिर किया जाता है। स्वाध्याय का अर्थ केवल पुस्तक पढ़-सुन लेना ही नहीं है, किन्तु उक्त शास्त्र या ग्रन्थ में अंकित तत्त्वों-तथ्यों पर विचार करके अन्तर्बोध करना, सत्य को प्राप्त करना भी तथा अनुप्रेक्षा और भावना के माध्यम से अन्तर की गहराई में उतरकर सत्य के तट तक पहुँच जाना, सत्य का आन्तरिक निरीक्षण-परीक्षण एवं बोध कर लेना भी स्वाध्याय है। इसलिए स्वाध्याय के दर्पण में मन और बुद्धि के द्वारा अन्तर्निरीक्षण करने के कारण स्वाध्याय आभ्यन्तरतप है। यद्यपि स्वाध्याय में शरीर और वाणी का भी सम्बन्ध रहता है, पर वह इतना गौण होता है कि सारा चिन्तन - प्रवाह अन्दर की ओर होता है, बाहर की ओर नहीं । स्वाध्याय वाणी से या समौन करते हुए भी उसमें पठित शब्दों का तार अन्तर्मन से और बुद्धि से जोड़ा जाता है । ' स्वाध्याय : अन्तर्निहित ज्ञान को प्रकाशित करने हेतु दीपक है स्वाध्याय अन्धकारपूर्ण जीवनपथ को आलोकित करने के लिए दीपक के समान है। इसके दिव्य आलोक में हेय, ज्ञेय और उपादेय का परिज्ञान हो जाता है। अन्तरात्मा में निहित ज्ञान को प्रकाशित करने, आत्मा में निर्हित ज्ञानादि गुणों की निधि को बताने के लिए स्वाध्याय दीपक का कार्य करता है। 'बौद्ध त्रिपिटक' में स्वाध्याय के द्वारा अपने आप का दीपक स्वयं बनने का निर्देश है। स्वाध्याय : नन्दनवन के समान आनन्ददायक है शास्त्रकारों ने स्वाध्याय को नन्दनवन की उपमा दी है। नन्दनवन में चारों ओर मन को आल्हादित करने वाले सुरम्य दृश्य होते हैं, जहाँ पहुँचकर मानव अपनी शारीरिक-मानसिक थकान मिटा देता है, वह तरोताजा और फुर्तीला हो जाता है, सभी प्रकार की आधि, व्याधि और उपाधि को विस्मृत करके आनन्द के झूले में झूलने लगता है। इसी प्रकार स्वाध्यायरूपी नन्दनवन में पहुँचकर मानव अलौकिक एवं अपूर्व आनन्द का अनुभव करता है, अपनी मानसिक, बौद्धिक समस्याएँ सुलझाकर शान्ति और सन्तोष प्राप्त कर लेता है। स्वाध्याय के नन्दनवन में विचरण - रमण करने पर कभी महापुरुषों के जीवन की दिव्य और भव्य झाँकियाँ पढ़ने को मिलती हैं; कभी शुभाशुभ के कर्मवृक्षों के फल के रूप में स्वर्ग और १. 'महावीर की साधना का रहस्य' (आचार्य महाप्रज्ञ ) से भाव ग्रहण, पृ. २७३-२७४ २. (क) 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण (ख) अप्प दीपो भव । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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