________________
* निर्जरा, मोक्ष या पुण्य-प्रकर्ष के उपाय : विनय और वैयावृत्यतप * ३७३ *
वैयावृत्य से उत्कृष्ट पुण्योपार्जन तथा संवर-निर्जरा : एक चिन्तन ___ वैयावृत्य के पूर्वोक्त ज्वलन्त उदाहरणों से वैयावृत्य के चार फल दृष्टिगोचर होते हैं-तीर्थंकरत्व, चक्रवर्तित्व, अतुलबल-सम्पन्नता और भुवनमोहनरूप-सम्पन्नता। इनमें प्रथम दो फल तो उत्कृष्ट पद हैं और शेष दो हैं-पुण्य से सम्बद्ध, भौतिक फल। वैयावृत्य का उत्कृष्ट फल तो निर्जरा तथा महानिर्जरा, महापर्यवसानता है। जिनमें से इन चारों में वैयावृत्य होने वाली पुण्यराशि की न्यूनाधिकता है, फिर भी अशुभ कर्मों का निरोधरूप संवर एवं अशुभ कर्मों के क्षयरूप निर्जरा भी न्यूनाधिकरूप में है; किन्तु महानिर्जरा तो एकान्त आत्मलक्ष्य से युक्त इच्छानिरोधपूर्वक पूर्वोक्त दस उत्तम पात्रों की वैयावृत्य करने वाले निर्ग्रन्थ-साधक को प्राप्त होती है, वह आत्मार्थ और परमार्थ दोनों को साधता है। यद्यपि योग शुद्ध नहीं, शुभ ही होता है, किन्तु कषाय से रहित होते हुए योग को विशुद्ध कहा गया है। अतः कषायरहित योग से होने वाला प्रदेशबन्ध अबन्ध जैसा ही है। ऐसे वैयावृत्य-साधक में पर-गुणों का अनुमोदन भी आत्म-गुणों में रमण के लिए होता है। अतः उसका योग शुभ होकर विशुद्ध होता चला जाता है। विशुद्ध योगी को शीघ्र ही सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष प्राप्त हो सकता है।
निष्कर्ष यह है-वैयावृत्यतप से प्रधानतया कर्मों की निर्जरा होती है, किन्तु उसमें प्रशस्त गुणानुराग भी मौजूद रहता है। इसलिए इच्छानिरोधरूप अंश से कर्मनिर्जरा होती है एवं प्रशस्त मंद अनुराग से शुभ कर्म (पुण्य) का बन्ध भी होता है। - तीर्थकर और चक्रवर्तीपद की प्राप्ति में कर्मनिर्जरा भी होती है
यद्यपि तीर्थंकरपद-प्राप्ति उत्कृष्ट पुण्यराशि के उपार्जन का फल है, किन्तु उसके पीछे जो बीस स्थान या सोलह कारण बताये गए हैं, वे सब संवर-निर्जरारूप धर्म से सम्बद्ध होते हुए साथ में सरागसंयम पूर्ण (सर्वकर्म) मुक्ति में अवरोधक हो जाता है। चक्रवर्तीपद भी भौतिक फल है, पुण्यवृद्धि का परिणाम है, यह पौद्गलिक होने के बावजूद अशुभ कर्मों की निर्जरा के बिना प्राप्त नहीं होता। यद्यपि वैयावृत्यतप निराकांक्षता तथा शारीरिक ममत्व-व्युत्सर्ग (सुखशीलता के त्याग) के बिना हो नहीं सकती, तथापि छद्मस्थ-साधक के जीवन में रोगांश (अल्प प्रशस्तराग) होता है, उसके फलस्वरूप उसे पौद्गलिक फल प्राप्त होता है, किन्तु वह आगे चलकर उसके आत्मिक-विकास एवं उत्थान में अवरोधक नहीं होता।
वैयावृत्य से संवर, निर्जरा, महानिर्जरा और मोक्ष की प्राप्ति भी सुलभ ___ इस प्रकार वैयावृत्य में तन, मन, वचन तीनों योगों की एकरूपता होती है, तभी वह आभ्यन्तरतप होता है और निर्जरा-महानिर्जरा भी उससे उपार्जित हो
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org