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* ३७२ कर्मविज्ञान : भाग ७
सदुपयोग किया जाए तो मनुष्य का आन्तरिक सौन्दर्य खिल उठता है, कर्मक्षय होने से मोक्ष के एवं परमात्म-पद के निकट वह पहुँच जाता है।" मुनिराज का उपदेशामृत पाकर नन्दीषेण मुनि बना, अपने जीवन को उसने धन्य और सुखी अनुभव किया। रत्नत्रयाराधना में पुरुषार्थ करते हुए स्थविर, रुग्ण, ग्लान एवं अशक्त साधुओं की वैयावृत्य में अपनी शक्ति लगा दी। अपने आहार-विहार की, अपनी सुख-सुविधा की तथा प्रशंसा - प्रसिद्धि की परवाह न करते हुए वह अहर्निश सर्वात्मना वैयावृत्य-तत्पर रहने लगा। जिसको देखकर लोग घृणा से मुख फेर लेते थे, उस नन्दीषेण मुनि की चारों ओर प्रशंसा होने लगी । देवों के अधिपति इन्द्र ने भी अपनी धर्म परिषद में नन्दीषेण मुनि की वैयावृत्य - परायणता की भूरि-भूरिं प्रशंसा की । अतः एक देव उसकी परीक्षा के लिए चला आया । वैक्रिय-शक्ति से उसने एक वृद्ध रुग्ण साधु का वेश बनाया और दूसरा रूप बनाया उसके शिष्य के रूप में स्वस्थ साधु का। नन्दीषेण मुनि पारणा करने बैठे ही थे, इतने में ही. साधुवेषी देव ने नन्दीषेण मुनि को फटकारते हुए कहा - " देख लिया, तुम्हारा सेवाभाव ! मेरे गुरुदेव अतिसार रोग से ग्रस्त होकर वहाँ पड़े हैं और तुम अपने भोजन में लगे हुए हो ।” नन्दीषेण मुनि ने यह सुनते ही शान्तभाव से कहा - "“क्षमा करें मुनिवर ! मुझे पता नहीं था । बताइए कहाँ हैं आपके गुरुदेव ?" यों कहकर आहार को वहीं छोड़कर वे साधुवेषी के साथ उस स्थान पर आए । मलमूत्र में लिप्त साधु को देखकर तुरंत कहीं से प्रासुक जल लाए और अग्लानभाव से उसके शरीर की सफाई की। फिर उन्हें अपने स्थान पर चलने का अनुरोध किया । वृद्ध साधु ने कुपित होकर वहाँ चलने में असमर्थता बताई तो उसे अपने कंधों पर बिठाकर अपने निवास-स्थान की ओर चल पड़ा। रास्ते में उक्त वृद्ध रुग्ण मुनि ने नन्दीषेण का सारा शरीर दुर्गन्धयुक्त मल से भर दिया, फिर भी मुनि के एक रोम में भी ग्लानि, घृणा या रोष का भाव नहीं आया । चेहरे पर तनिक भी सिहरन न आई। देव अपनी परीक्षा में नन्दीषेण मुनि को उत्तीर्ण जानकर अपने असली दिव्यरूप में नन्दीषेण मुनि के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हुआ । मुक्त कण्ठ से मुनि के सेवाभाव की प्रशंसा की।
दीर्घकाल तक तप, संयम एवं सेवा (वैयावृत्य) की साधना करके नन्दीषेण मुनि समाधिमरणपूर्वक आठवें देवलोक में पहुँचे । “अगले जन्म में अनेक रमणियों का तथा लक्ष्मी का भोक्ता बनूँ", इस पूर्वकृत निदान के कारण वे देवलोक से च्यवकर मनुष्यलोक में अपूर्वरूप सम्पदा से सम्पन्न तथा अनेक नारियों के स्वामी वसुदेव बने। यह है, वैयावृत्य को उपार्जित पुण्यराशिवश प्राप्त सुफल ।'
9. ( क ) आवश्यकचूर्णि (ख) वसुदेव चरित्र
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