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________________ ॐ ३७० * कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ वैयावृत्यतप का महान् पुण्यफल : तीर्थकर चक्रवर्ती आदि पद मानव-जगत् में दो पद सर्वोत्कृष्ट माने जाते हैं-भौतिक वैभव एवं ऐश्वर्य की दृष्टि से चक्रवर्ती का और आध्यात्मिक ऐश्वर्य की दृष्टि से तीर्थंकर का। विश्व में सर्वोत्कृष्ट भौतिक वैभव एवं ऐश्वर्य का धनी चक्रवर्ती सम्राट होता है, उसके बल, वैभव, सेना और समृद्धि की समानता मानव-जगत में दूसरा कोई नहीं कर सकता; इसी प्रकार तीर्थंकर आध्यात्मिक वैभव एवं शक्ति की दृष्टि से विश्व में अद्वितीय पुरुष होते हैं। वे आत्मा की अनन्त शक्तियों के तथा अव्याबाध आत्मिक-सुख (आनन्द) के स्वामी होते हैं। अनन्त आध्यात्मिक विभूतियाँ, ऐश्वर्य एवं आत्म-गुणों की सम्पत्ति उनके चरणों में लोटती है। चक्रवर्ती, नरेन्द्र, नागेन्द्र, देव और देवेन्द्र, एक नहीं, लक्षाधिक विशिष्ट जन उनकी चरण-सेवा, उपासना एवं भक्ति करते हैं। चक्रवर्ती और तीर्थंकर इन दोनों महान पदों के जो मूल कारण हैं, जिस तपोबल से इन पदों की प्राप्ति हो सकती है, उसमें एक महत्त्वपूर्ण तप है-वैयावृत्य। सम्यग्दृष्टि को वैयावृत्य से पुण्यानुबन्धी पुण्य के अतिरिक्त अशुभ कर्मों की निर्जरा और उत्कृष्टभाव आएँ तो महानिर्जरा भी होती है। भरत और बाहुबली को वैयावृत्यतप से विशिष्ट उपलब्धि भगवान ऋषभदेव पूर्व-भव में वज्रनाभ मुनि थे। उन्होंने बीस स्थानों की आराधना करके तीर्थंकर नामगोत्र का उपार्जन किया था। इन्हीं भगवान ऋषभदेव के दो सुपुत्र थे-भरत और बाहुबली। भरत चक्रवर्ती थे, अतुल वैभव और ऐश्वर्य के स्वामी, किन्तु बाहुबली भी कम नहीं थे, अपार बलधारक थे। उन्होंने अपार सैन्यबलधारक भरत चक्रवर्ती जैसे बलिष्ठ चक्रवर्ती को दृष्टियुद्ध, मुष्टियुद्ध आदि द्वन्द्वयुद्ध में अपने उत्कृष्ट वाहुबल द्वारा पराजित कर दिया था। भरत चक्रवर्ती को चक्रवर्तीपद तथा बाहुबली को ऐसा अद्भुत अपूर्व बल कैसे, किस साधनाआराधना से प्राप्त हुआ था? इन दोनों ने पूर्व-भव में इसी वैयावृत्यतप की साधना की थी। भरत पूर्व-भव में वाहु मुनि थे और बाहुबली थे सुबाहु मुनि। थके हुए, परिश्रान्त एवं अशक्त मुनिजनों को वाहु मुनि विथामणा देते थे, उनके हाथ-पैर आदि दबाते थे, अंग-मर्दन करते और उन्हें आराम पहुँचे, ऐसी सेवा (वैयावृत्य) पिछले पृष्ठ का शेष(घ) जेण सम्मत्त-णाण-अरहंत-बहुसुदभत्ति-पवयण-वच्छलादिणा जीवो जुज्जइ वेज्जावच्चे सो वेज्जावच्चजोगो देसण विमुज्झदादि. तेण जुत्तदा वेज्जावच्च-जोग-जुत्तदा। ताए एवंविहाए एक्काए वि तित्थयरणामकम्मं बंधइ। एत्थ सेसकारणाणं जहासंभवेण अंतब्भावो वत्तव्वा। -धवला ८/३/४१/८८ (ङ) वेयावच्चेणं तित्थयर-नामगोयं कम्मं निबंधेइ। -उत्तराध्ययन २९/३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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