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________________ ॐ निर्जरा, मोक्ष या पुण्य-प्रकर्ष के उपाय : विनय और वैयावृत्यतप ® ३६९ & तीर्थकरत्व-प्राप्ति के अधिकांश गुणों का वैयावृत्ययोगयुक्तता में अन्तर्भाव 'ज्ञातधर्मकथासूत्र' में २० स्थान बताये गए हैं, जिनकी आराधना-साधना से आत्मा तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन कर लेती है। उनमें से अधिकांश स्थान ऐसे हैं, जिनका वैयावृत्य में समावेश हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि धर्माराधना अथवा मोक्ष-प्राप्ति की साधना में वैयावृत्य की कितनी महत्ता और उपयोगिता है ? _ 'धवला' और 'षट्खण्डागम' में भी बताया गया है, तीर्थंकरत्व-प्राप्ति के लिए जो १६ कारण-भावनाएँ बताई हैं, उनमें से दर्शन-विशुद्धि, विनय-सम्पन्नता, यथाशक्ति तपश्चरण, साधुओं के लिए प्रासुक (अचित्त) वस्तु का दान (त्याग), साधुओं को समाधि-संधारणा, साधुओं के प्रति वैयावृत्य योगयुक्तता, अरहन्त-बहुश्रुत-प्रवचन-भक्ति, प्रवचन-वत्सलता, प्रवचन-प्रभावना इत्यादि गुणों के लिए व्यक्ति वैयावृत्य में संलग्न होता है। अतः दर्शन-विशुद्धता आदि गुण वैयावृत्य योग हैं। उनसे संयुक्त होने का नाम वैयावृत्य योगयुक्तता है। इस प्रकार इस एक ही वैयावृत्य योगयुक्तता से ही अनेक अशुभ कर्मों की निर्जरा होकर तीर्थंकर नामकर्म बँध जाता है। अर्थात् इस एक ही वैयावृत्य के अन्तर्गत तीर्थंकरत्व-प्राप्ति के उक्त १६ गुण (श्वेताम्बर परम्परानुसार २० गुण) आ जाते हैं। यही कारण है कि भगवान महावीर ने 'उत्तराध्ययनसूत्र' में वैयावृत्य के लाभ की पृच्छा करने पर बताया कि वैयावृत्य करने से आत्मा तीर्थंकर नामगोत्रकर्म का उपार्जन करता है।" यह है वैयावृत्य के आचारण से अशुभ कर्मों की निर्जरा करने के साथ-साथ महान् पुण्यराशि उपार्जन करने के फलस्वरूप विश्व के सर्वोत्कृष्ट तीर्थंकरपद की प्राप्ति की शक्यता ! पिछले पृष्ठ का शेष ___ महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं.-अगिलाए सेहवेयावच्चं कुलवेयावच्चं ... . गणवेयावच्चं संघवेयावच्चं साहम्मियवेयावच्चं करेमाणे। -स्थानांगसूत्र, स्था. ५, उ. १, सू. ४४-४५ ... (ख) आयरियवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ, उवज्झायवेयावच्चं. थेरवेयावच्चं तवस्सिवेयावच्चं सेहवेयावच्चं गिलाणयावच्चं साहम्मियवेयावच्चं कुल-गण-संघवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवई। -व्यवहारसूत्र, उ. १० • १. (क) देखें-ज्ञातृधर्मकथासूत्र के ८वें अध्ययन में अरिहंत-सिद्ध-पवयण-गुरु-थेर... तित्थयरत्तं लहइ जीवोत्यादि पाठ (ख) दर्शनविशुद्धिर्विनय-सम्पन्नता प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थंकृत्वस्य -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ६, सू. २३ (ग) दंसणविसुज्झदाए विणय-संपण्णदाए . . . . इच्चेदेहिं सोलसेहिं कारणेहिं जीवा तित्थयरणाम गोदं कम्मं बंधंति। . -षट्खण्डागम ८/३/४१/७९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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