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® निर्जरा, मोक्ष या पुण्य-प्रकर्ष के उपाय : विनय और वैयावृत्यतप * ३५५ 8
निरोध या त्याग करना अप्रशस्त कायविनय है। अप्रशस्त कायविनय का प्रतिप्रक्षी प्रशस्त कायविनय है। जैसे-आवश्यकता होने पर सावधानी (यतना) विवेक एवं उपयोगयुक्त होकर चलना, ठहरना, बैठना, सोना आदि।
(७) लोकोपचारविनय-इसे उपचारविनय भी कहा गया है। इसके दो भेद किये जा सकते हैं-लौकिक और लोकोत्तर उपचारविनय। अपनी किसी मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्ति से दूसरे व्यक्ति या प्राणी को कष्ट, दुःख या क्लेश न हो, किसी भी जीव की आशातना-अवहेलना न हो इस प्रकार का लोक-व्यवहारानुकूल शिष्ट व्यवहार करना लौकिक उपचारविनय है। लोकोत्तर उपचारविनय के ७ भेद हैं-(१) अभ्यासवर्तित-गुरु आदि गुणाधिकों के पास रहकर विनयपूर्वक ज्ञानाभ्यास करना, (२) परछन्दानुवर्ती-गुरु आदि बड़ों के अनुशासन में, उनके निर्देश के अनुसार चलना, (३) कार्य हेतु-ज्ञानादि कार्य के लिए विनय करना, (४) कृत-प्रतिक्रिय-अपने किये हुए उपकारों के बदले में आहारादि द्वारा गुरु आदि की सेवा-शुश्रूषा करना, ताकि प्रसन्न होकर वे विशेष ज्ञान दें। (५) आत-गवेषणाग्लान, वृद्ध, रुग्ण, गुरुजनों तथा अन्य साधुओं के लिए औषध एवं पथ्य लाकर देना, (६) देश-कालज्ञता-देश, काल और परिस्थिति देखकर यथायोग्य प्रवृत्ति करना, (७) सर्वत्र अप्रतिलोभता-सभी कार्यों में अप्रतिकूल-अविरोधी रहना, किसी साधक के विरुद्ध (निन्दात्मक या निन्द्य) आचरण न करना।
लोकोत्तर उपचारविनय के प्रकार 'औपपातिकसूत्र' तथा 'दशवैकालिक नियुक्ति' में लोकोत्तर उपचारविनय के मूल १३ तथा ५२ भेद बताये गए हैं-(१) तीर्थंकर, (२) सिद्ध, (३) कुल, (४). गण, (५) संघ, (६) क्रिया (शास्त्रोक्त धर्मानुष्ठान), (७) धर्म (श्रुत-चारित्र
धर्म अथवा रत्नत्रयरूप धर्म या संवर-निर्जरारूप धर्म), (८) ज्ञान, (९) ज्ञानी, • (१०) आचार्य, (११) स्थविर, (१२) उपाध्याय, और (१३) गणी। इन तेरह की आशातना न करना, भक्ति करना, इन्हें बहुमान देना और वर्ण-संज्वलता (गुणगान) करना, इन चारों को १३ से गुणा करने पर ५२ भेद (लोकोत्तर उपचार) विनय के हो जाते हैं।
ये विनय नहीं, विनयाभास हैं, मोक्षविनय ही ग्राह्य विनय के अन्तर्गत जो लोकोपचार (लोक-व्यवहार निभाने हेतु) विनय, अर्थनिमित्तविनय, कामहेतुविनय और भयविनय बताये गए हैं। उनमें लौकिक १. (क) दशवैकालिक, अ. ९, उ. १; नियुक्ति, गा. ३२५-३२६
(ख) औपपातिकसूत्र, पृ. २०
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